मेरा मन - कविता - आर्तिका श्रीवास्तव

रोशनी की हर एक किरण को भेदता सा मेरा मन,
रात के अँधियारे को बस चीरता सा मेरा मन।

है नहीं मालूम कैसे चल रही है श्वास यह,
इन श्वास की गहराइयों को तोलता सा मेरा मन।

है नहीं अंदाज़ कैसे धड़कता है दिल मेरा,
इस दिल की हर एक धड़क को मेहसूस करता मेरा मन।

है नहीं मालूम कैसे भावनाएँ बह रहीं,
ऐसी बहती भावना को समझता सा मेरा मन।

क्यूँ है इतना समझ पाना कठिन ख़ुद के भावों को,
ख़ुद से है यह सवाल करता परेशाँ सा मेरा मन।

है नहीं आसान ख़ुद को खो के फिर से ढूँढ़ना,
ख़ुद से ख़ुद को ही मिलाता मूर्ख सा यह मेरा मन।

उलझनों में डूबे है और सुलझते भी नहीं,
ऐसी उलझी उलझनों से और उलझता मेरा मन।

न मुझे भाती यह दुनियाँ जो तंज कस कर जी रही,
ऐसी छोटी सोच से है भागता सा मेरा मन।

कोई तो हो जगह ऐसी, जिसमें बस सौहार्द हो,
ऐसे ही एक शांत स्थल को ढूँढ़ता सा मेरा मन।

रोशनी की हर एक किरण को भेदता सा मेरा मन,
रात के अँधियारे को बस चीरता सा मेरा मन।

आर्तिका श्रीवास्तव - लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

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