विधवा - कविता - अवनीत कौर 'दीपाली सोढ़ी'

बदल गया मेरा अस्तित्व
जीवन का दीप बुझ सा गया
सौभाग्यशाली में नाम था मेरा
तुम्हारे जाते,
दुर्भाग्यशाली में जुड़ गया
तुम्हारा जीवन ख़त्म होते ही 
जीवन मेरा भी समाप्त हो गया।
मेरी कलाई सजी थी 
तुम्हारे नाम के कंगन से
तुम्हारे जाते ही,
सूनी हो गई मांग मेरी
जो तुम्हारे नाम के
सिंदूर से भरी थी।
आज खाली परिधि हो गई। 

रंग-बिरंगे वस्त्र से 
कभी मैं सँवरती दी थी 
आज बेरंग ढाँचा हो गई। 
सँवरी-सँवरी सी मैं
तुम्हारे जाते ही,
आज उजड़ी बिखरी सी हो गई।
हर नज़र अब खाती है मुझको
हर शब्द ताना सा हो गया
जिन आँखों में प्रतिष्ठा थी,
आज उन आँखों में दर्द हो गया
जीवन तेरे साथ 
नवरस से भरा था
तेरे जाते ही, नीरस हो गया।
धरा से संपूर्ण थी मैं,
अल्हड और बेपरवाह मैं
हर व्रत त्योहार पर हक़ था मेरा
हर साज सज्जा शृंगार था‌‌ मेरा
तुम्हारे जाते ही,
मैं शून्य सी हो गई।
कब सुधरेगा हाल विधवा का
कब हर दिन पर हक़ होगा 
कब हर नज़र की,
आबरू बनूँगी मैं,
कब बेरंग वस्त्र,
ना पहचान होगी मेरी
कब तुम्हारे जाने के बाद भी, अस्तित्व होगा मेरा
कब विधवा का,
अभिशाप ध्वस्त होगा।

अवनीत कौर 'दीपाली सोढ़ी' - गुवाहाटी (असम)

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