तिरस्कृत मन - कविता - जगदीश चंद्र बृद्धकोटी

स्तब्ध मन हो रहा है जब
क्रोध बाँटा जा रहा है,
अनगिनत अवहेलनाओं
से पुकारा जा रहा है।

ख़ुद की कुंठा को छिपाने 
मुझको रोका जा रहा है,
कटु वचन से शब्दभेदी
बाण मारा जा रहा है।

मगर भ्रम उत्पन्न करके
सत्य छुपता क्या कभी?
अन्ध बन स्वीकारने से
द्वन्द छिड़ता क्या कभी?

मूक बन ख़ुद की जिसे 
अवहेलना स्वीकार है,
द्वन्द क्या छेड़ेगा वह कायर
उसे धिक्कार है।

ये लड़ाई हो गई है
अब मेरे अधिकार की,
रोक ना पाएँगी मुझको
बेड़ियाँ संसार की।

प्रत्येक जीवन के सफ़र का
यह अनोखा पर्व है,
जिसको अपनी स्वाभिमानी
पर सदा ही गर्व है।

निन्दकों की बात का
उसपर न पड़ता फ़र्क़ है,
उसके लिए द्युलोक क्या
यह धरा ही स्वर्ग है।

जगदीश चन्द्र बृद्धकोटी - अल्मोड़ा (उत्तराखंड)

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