उलझी हुई है ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ सँवार दे - ग़ज़ल - शमा परवीन

अरकान : मफ़ऊलु फ़ाइलात मुफ़ाईलु फ़ाइलुन
तक़ती : 221  2121  1221  212

उलझी हुई है ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ सँवार दे,
दरया-ए-ग़म में डूबी हूँ मुझको उभार दे।

उतरे न ता हयात कभी नश्श-ए-ख़ुलूस,
ऐसी शराब दे जो मुझे ग़ज़ब का ख़ुमार दे।

जी चाहता है आपके माथे को चूम लू,
मेरे तू इस ख़्याल को पुख़्ता करार दे।

वह ग़म मुझे हर एक ख़ुशी से अज़ीज़ है,
जो बेकरार दिल को मुसलसल क़रार दे।

मुझको भुला न दें कहीं हालात-ए-ज़िंदगी,
ऐ दूर जाने वाले कोई यादगार दे।

उल्फत का हक़ अदा तेरी कर दूँगी मैं ज़रूर,
लेकिन यह शर्त है कि तू मुझे भी हिसार दे।

कितनी हसीन तर है यह जलती हुई शमा,
हाथों से छू लूँ काश मुझे अख़्तियार दे।

शमा परवीन - बहराइच (उत्तर प्रदेश)

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