ओमकार का स्वर है फैला
शिव नभ के हर द्वारे में,
ओम शब्द की ध्वनि है गूँजी
दुख के इस अँधियारे में।
अंग-अंग है तृप्त हुआ,
मन का भ्रम भी लुप्त हुआ।
ओम ही धरती, ओम ही अम्बर,
ओम रास्ता, ओम ही मंज़र।
ओम ही मुक्ति, ओम समंदर,
ओम ही बसता शिव के अंदर।
ओम से सीखा, ओम में रहकर,
ओम से शीतल, ओम में बहकर।
ओम की मस्ती में मग्न होकर,
ओम में मिला सबकुछ खोकर।
हाथ कमंडल मनके की माला,
अटल सत्य है डमरू वाला।
देह विशाल बाघम्बर पहने,
गले मे है विषधर के गहने।
विश्व विजेता बन विष पीकर,
नीलकंठ है जय शिवशंकर।
बैठा है कैलाश शिखर पर,
धन्य तुम्हारी अर्धनरेश्वर।
काल है चलता जिससे पल-पल,
कहलाए वो महाकालेश्वर।
हे त्रिपुरारी, हे अविनाशी,
तुमसे गंगा, तुमसे काशी।
शिव शम्भू में जग समाया,
तुम्ही ही धूप, तुमसे ही छाया।
जो महाकाल की शरण मे आया,
काल अकाल के भय को भगाया।
सुर, नर, मुनि, जन तुमको ध्यावे,
सब मिल कर तुम्हरे गुण गावे।
तुम ही आदि हो,
तुम ही अंत हो,
तुम ही अजय हो,
तुम ही अमर हो।
सारे जग के न्यायाधीश,
सबको देते तुम आशीष।
सृष्टि का आधार है शिव,
बुराई का विनाश है शिव।
प्राकृति में छेड़ा तार है शिव,
जन-जन का कल्याण है शिव।
सबको जीवन देने वाले,
हर युग का निर्माण है शिव।
शक्ति श्रीवास्तव - बस्ती (उत्तर प्रदेश)