शिशिर ऋतु - कविता - शुचि गुप्ता

चुम्बन गगन करे धरा, वीणा मधुर बजी,
मृदु धूप में निखर नहा, दुल्हन प्रभा सजी।
बन मीत प्रेम ऋतु शिशिर, है पालकी लिए,
शुभ आगमन अनंग रति, रस सोम का पिए।

हिम की दुशाल ओढ़ ली, हैं वृक्ष काँच से,
बूंदें रजत पिघल रही, बस नेह आँच से।
देखो ठिठुर रहे विजन, उत्तर ध्रुवी पवन,
दृग धुँध में मुंदें छुपे, ऊष्मित सुखद छुअन।

थर थर वितान साँझ के, संदल हुए नगर,
रुक रुक चरण धरे निशा, उमड़ी सकुच लहर।   
मन तन सिहर सिहर उठे, बेला प्रणय सपन,
रह रह समीर बह रहा, आकुल हृदय अगन।

यह शर्वरी शिशिर भरी, लिपटी कुहास में,
झीनी चुनर सुषुप्त सी, अटकी विलास से।
है मौन सा मलय अनिल, स्मृति सघन विलय,
ढक मरमरी लिहाफ़ से, उर को बना निलय।

है रात कामिनी मदन, विभु चाँदनी खिली,
चुप से अधर कहें नयन, मधु चाशनी घुली।
मन झील के सरस कमल, तेरा करें चयन,
शृंगार रूप शुचि नवल, भुजबंध में शयन।

शुचि गुप्ता - कानपुर (उत्तरप्रदेश)

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