आदमी की ज़िंदगी पतंग सी
कभी रंग बिरंगी चमकती,
डोर कट जाए रिश्तों की तो
न जाने कहाँ-कहाँ भटकती।
लक्ष्य को पाने ऊँचाइयाँ छू लेती
कभी हिचकोले खाती खाती,
मगर कोई टाँग खींचता तो
पल में झट से धरती पर टपकती।
पतंग के रफ़्तार सी होती ज़िंदगी
क्या-क्या न सह लेती है ज़िंदगी,
हाथों में डोर रह जाती बुज़ुर्गों के
पर न जाने कहाँ ले जाती ज़िंदगी।
डॉ॰ राजेश पुरोहित - भवानीमंडी, झालावाड़ (राजस्थान)