नज़रिया - कविता - बृज उमराव

सोच और व्यक्तिगत नज़रिया,
नज़र नज़र की बारी है।
कोई कहता भरा हुआ है,
कोई कहता खाली है।।

दृष्टिकोण है अपना अपना,
नपी नज़र का पैमाना।
इसी नज़र मे प्यार छुपा है,
इसी नज़र में नज़राना।।

घाव छुपे हैं दिल के अन्दर,
ग़म औ ख़ुशियों का एहसास।
कोई कितना दूर है दिल से,
कोई दिल के कितने पास।।

कोई घबराता है क्षण में,
कोई कर लेता बर्दाश्त।
सोंच धनात्मक रखें अपनी,
मंज़िल दिखती कितने पास।।

सफ़र सुहाना कितना पूरा,
कितना चलना बाक़ी है।
पात्र आपका उत्प्लावित है,
या फिर बिल्कुल खाली है।।

सबका होता अलग नज़रिया,
नज़रें होती जुदा-जुदा।
कोई कहता प्रभुवर, ईश्वर,
कोई कहता ईशु ख़ुदा।।

जन-जन की हर सोंच भिन्न है,
नज़रें होती प्रथक प्रथक।
एक सतह पर लाना सबको,
जो बिखरे हैं अलग-अलग।।

आडम्बर को ख़ुद पहचाने,
सच के पथ पर स्वयं चले।
सत्य सदा विजयी होता है,
चाहे कितनी देर लगे।।

सत्य सदा स्थिर रहता है,
इसमे कोई असर न हो।
झूठ में झूठ सर्वदा बोलें,
तब भी कोई फरक न हो।।

बृज उमराव - कानपुर (उत्तर प्रदेश)

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