काश तुम समझ पाती - कविता - गौरव पाण्डेय

आसमान की बारिश को 
कोई रोक न पाए,
जाने वाले हमराही को
अब कौन समझाए,
रिश्तों में कम हुई मिठास
कभी नहीं है बढ़ पाती,
हमारे इसी रिश्ते को
काश तुम समझ पाती।

ये तो वक़्त ही है जो
जो नए नए खेल है रचाता,
हर रोज़ किसी बहाने से
मुझे है आज़माता,
अब तुम्हारे बिन
हर रात मुश्किल से हैं कटती,
उन्हीं रातों की बात
काश तुम समझ पाती।

काश मेरी तड़प को
तुमने जाना होता,
काश इन आँसुओं की
कीमत को पहचाना होता,
कितनी मुहब्बत है तुमसे
ये अब बताई नहीं जाती,
मेरी इस मुहब्बत को
काश तुम समझ पाती।

मुझे करके अकेला
तुम यूँ छोड़ न जाती,
मेरे आँसुओं की कीमत को
गर तुम पहचान जाती,
सीने में मेरे, ग़म से तेरे
तकलीफ़ सहीं नहीं जाती,
मेरे सीने के हर ग़म
काश तुम समझ पाती।

गौरव पाण्डेय - रीवा (मध्य प्रदेश)

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