मानसिकता - लघुकथा - सुधीर श्रीवास्तव

पद्मा इन दिनों बहुत परेशान थी। पढ़ाई के साथ साथ साहित्य में अपना अलग मुक़ाम बनाने का सपना रंग ला रहा था। स्थानीय से लेकर राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय स्तर तक उसकी रचनाएँ प्रकाशित हो रही थीं। जिसके फलस्वरूप उसे विभिन्न आयोजनों के आमंत्रण भी मिलने लगे।
परंतु उसके पापा इसके ख़िलाफ़ थे।
वे कहते कि शादी के बाद जो करना हो करना। अभी तो मुझे बख़्शों। कुछ ऊँच-नीच हो जाएगी तो...।

पद्मा की माँ बेटी की भावनाओं और उसकी प्रतिभा को समझती थी, परंतु पति का विरोध करने की हिम्मत न थी।
अंततः पद्मा की शादी हो गई। उसने अपने पति से अपनी इच्छा ज़ाहिर की। उन्होंने उसे पूरा सहयोग का आश्वासन भी दिया। क्योंकि उनका छोटा भाई भी जिले के मंचों का उभरता नाम था। कई बार माँ पिता के साथ वो भी उसके साथ आयोजन में उपस्थिति हुए। भाई का बढ़ता सम्मान उन्हें भी गौरवान्वित करता था। उसके कारण भी बहुत से लोग उनको अलग ही सम्मान की दृष्टि से देखते थे।
उन्होंने पद्मा को भाई के बारे में बताया तो वो बहुत ख़ुश हुई।

रात में उसके देवर को जब जानकारी मिली तो उछल पड़ा "वाह भाभी! अब देखना कैसे आपके नाम का झंडा बुलंद होता है। नाम तो मैं भी सुनता रहा, पर ये पता नहीं था कि आप हमारे परिवार का हिस्सा बनोगी।
सच मैं बहुत ख़ुश हूँ, अब मुझे भी घर में ही एक गुरू का सानिध्य मिलेगा।"

पद्मा सोच रही थी कि सबकी अपनी अपनी मानसिकता है। किसी की विवशतावश तो किसी के विचारों और भावनाओंवश।
परंतु इसी मानसिकता के परिणाम स्वरूप कोई बहुत कुछ खो भी देता तो कोई बहुत कुछ पा भी जाता है।

सुधीर श्रीवास्तव - बड़गाँव, गोण्डा (उत्तर प्रदेश)

Instagram पर जुड़ें



साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिए साहित्य से जुड़ी Videos