रूह - कविता - नंदिनी लहेजा

मैं अजर हूँ मैं अमर हूँ,
जीवन मृत्यु से परे हूँ।
रहती हूँ प्राणी के तन में,
दिए में लौ की तरह।
काया की मैं साथी हूँ,
जो देती उसको जीवन है।
जीता अनेकों जज़्बातों को प्राणी,
जब तक संग मैं रहती हूँ।
पर मैं वो पंछी हूँ बंदे
जो सदा न रहता पिंजरे में।
जब खुलता पिंजरा देह का,
कहीं दूर उड़ जाती हूँ मैं।
हाँ मैं रूह हूँ तेरी बंदे,
जिसकी वजह से तू ज़िंदा है,
पर न मोह में रहना मेरे,
तन को बदलती रहती हूँ मैं।

नंदिनी लहेजा - रायपुर (छत्तीसगढ़)

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