सुलगते ख़्वाब - कविता - अनूप मिश्रा 'अनुभव'

अंदाज़ मौसम का आज,
फिर ख़ुशनुमा सा है।
बुझी चिंगारी सुलग रही,
उठ रहा फिर धुआँ सा है।।

जले मकान में फिर से आग, 
लगे भी क्या भला।
हाँ, बरस कर ही मिटा दे,
जो कुछ बचा निशाँ सा है।।

गुज़रते वक़्त के साथ उम्र का,
ढलना है लाज़मी।
न जाने दर्द मेरा अब तलक,
क्यूँ जवाँ-जवाँ सा है।।

मासूमियत पर जिसके कभी,
हम बेहद फ़िदा हुए।
उसी शख़्स ने उजाड़ डाला,
आज मेरा जहाँ सा है।।

बहते अश्क़ों को छुपाते रहना,
आसाँ तो नहीं है 'अनुभव'।
गुज़रे वक़्त की यादें ज़ेहन में,
जब तलक रवाँ सा है।।

एक लम्हे की बात होती तो,
शायद भूलना था मुमकिन।
यहाँ तो मुसल्सल यादों का, 
कोई कारवाँ सा है।।

अब होश में रहकर सुकून का,
मिलना नहीं है मुमकिन।
माना शराब ज़हर है, 
पर मेरे ख़ातिर दवा सा है।।

कोई लतीफा नही मेरा ग़म,
जो अल्फ़ाज़ों में बयान कर दूँ।
बहैसियत हाल-ए-दिल मेरा,
एक दास्ताँ सा है।।

मैं टटोलता हूँ माज़ी अपने,
न जाने क्यों बार-बार।
मेरा काशाना कभी जन्नत था,
वो अब जर्जर मकाँ सा है।।

जब इश्क़ था लाजवाब वो,
तो फ़ख़्र होना था लाज़मी।
दर्द भी ये बेमिसाल है तो,
हो रहा गुमाँ सा है।।

लब सिल तो लिया हूँ लेकिन,
नज़रे बहना न छोड़ती।
मेरे दर्द को अश्क़ मेरे,
करता बयाँ सा है।।

अनूप मिश्रा 'अनुभव' - उत्तम नगर (नई दिल्ली)

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