कुम्हार - कविता - अनूप मिश्रा 'अनुभव'

खेतों से काटकर मिट्टी, टोकरी भर-भर निज द्वारे लाता।
घास फूस कंकड़ निकाल, मिट्टी को निर्मल स्वच्छ बनाता।

छिड़क-छिड़क जल पुनः-पुनः, सूखे माटी करता फिर नम।
हथेलियों मध्य मल-मल माटी का, कठोर भाव करता है नर्म।

बल पूर्ण प्रयोग प्रौढ़ावस्था का कर, सानना ही होगा माटी को।
परिश्रम प्रारंभिक फल दे सुंदर, जाने यह भली भांति वो।

रक्त ईंधन के ऊर्जा से फिर, वह अति वेग से चाक घुमाता।
ज्यों वायु प्रवाह बल से अपने, पवन चक्कियाँ तीव्र नचाता।

नाचती चाक पर सने माटी, रखता है करने को श्रीजन।
गागर एक अनुपम जिसके, जल से तरस मिटाए जन-जन।

कर से अपने थामे माटी, देता है एक गागर का ढाँचा।
विश्वकर्मा की कृपा से जैसे, कर कमल स्वयं बन गया हो साँचा।

प्रेम भाव से फिरा उँगलियाँ, माटी को दे सुंदर आकार।
मृत माटी में जैसे जीवन ही, फूँक दिया करता है कुम्हार।

अति सावधानी से चाक रोक, गागर उतार रखता है धारा पर।
करता है निगरानी गगरी की, कुछ टकराए न उस से आकर।

कच्चे गागर को सुखाने हेतु, स्वयं भी धूप में जलता है।
कोमल माटी को सुखा पका कर, पुनः कठोर वह करता है।

पहले करता माटी कोमल, उसे सुबर सुधर बनाने को।
पुनः कठोर बनाता है वही माटी, जग के ठोकर सह पाने को।।

अनूप मिश्रा 'अनुभव' - उत्तम नगर (नई दिल्ली)

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