पत्ती सूखी अब गिरी - कविता - अशोक बाबू माहौर

पत्ती सूखी
अब गिरी
डाली से
जो अधमरी-सी लटकी थी
दो दिनों से।
हवा बल दिखाती
ताण्डव करती
भूचाल मचाती
पेड़-पौधों को झकझोरती
और पत्ती को घसीटकर ले जाती
कोसों दूर
खंडहर में, 
जहाँ केवल आवाज़ें गूँजती
कीड़ों की
जैसे शायद भूखे प्यासे हों
सदियों से
अपने ही आँगन में।

अशोक बाबू माहौर - मुरैना (मध्यप्रदेश)

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