गर बेटियाँ न होगी - कविता - उमाशंकर राव 'उरेंदु'

बेटियाँ रोशनी होती है
अँधेरे की 
जीवन की बेला की ख़ुशबू
सान्त्वना की शीतल बुँदे 
उम्मीदों की किरणें 
स्पृहा का उद्गम 
दो कुल की कड़ी 
इसलिए बेटियाँ हैं पुत्र से बड़ी।

ज़िम्मेदारी का बोध है बेटियाँ  
रीति-रिवाजों का केन्द्र है बेटियाँ 
सौहार्द की पूर्णता 
नेह की निश्छलता 
प्रेम का आयाम 
आकाश का विस्तार है उसमें 
समंदर की गहराई 
पेड़ों की छाया 
दीपक की बाती 
क्या नहीं है बेटियाँ? 
बेटियाँ ही हैं जो माता-पिता के गर्व को तारती है, टाँकती है
चित्र सदृश नेह-दीवार पर
बताती है बचाती है जीवन की मर्यादा,
गर बेटियाँ नहीं हो
तो यह सृष्टि बालू की भीत हो जाएगी 
यह चराचर जगत मिट जाएगा 
घर अँधेरे में डूब जाएगा 
पालने पर बच्चे फिर नहीं खिलखिलाएँगे 
न दीवाली आएगी, न होली गाएगी
तीज और दशहरा गुम हो जाएगा
गर बेटियाँ न होगी 
तो चिता उठाने के लिए संतान (पुत्र) कहाँ से आएगा?

उमाशंकर राव 'उरेंदु' - देवघर बैद्यनाथधाम (झारखंड)

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