श्राप यह स्वीकार - कविता - डॉ॰ गीता नारायण

कृष्ण ने कहा गंधारी से; 
माता, श्राप यह स्वीकार।
ना लाना मन में कोई ग्लानि और आत्म-धिक्कार।
तुम्हारा श्राप यह स्वीकार।

यदुकुल में जब मचेगा हाहाकार 
चहुँओर जब होगी चीख़ पुकार 
मैं... नारायण... वासुदेव श्रीकृष्ण
भी कर ना पाऊँगा कोई चमत्कार!
तुम्हारा श्राप यह स्वीकार।

सत्य है 
सत्ता का जब जनता से खो जाता सरोकार,
सिर पर चढ़कर नाचता शक्ति का अहंकार,
मन में बस जाते ना जाने कितने विषय विकार।
तब देश हो या परिवार...
होता महाभारत बारंबार।
तुम्हारा श्राप यह स्वीकार ।

माता, तुम्हारे भूशायी पुत्रों का मैं नहीं ज़िम्मेदार,
तुमने ही तो बाँधी थी आँखों पर पट्टी बेशुमार।
धृतराष्ट्र तो ख़ैर अंधे थे 
पर जिस दिन तुम ने स्वेच्छा से अंधेपन को किया स्वीकार,
उस दिन क्या निश्चित नहीं हो गया था तुम्हारे पुत्रों का संहार?
फिर भी श्राप यह स्वीकार।

हे माता!
तुम्हारी निष्ठा तुम्हारे पति के प्रति थी...
तुमने उसे निभाया,
किसी की सिंहासन 
तो किसी की राजा के प्रति थी 
उन्होंने निभाया, 
और द्रोपदी...
वह तो जनता थी 
जिसे सब ने सताया।
मैं... वासुदेव कृष्ण 
भला कैसे सहता यह तिरस्कार...! 
फिर भी
श्राप यह स्वीकार।

डॉ॰ गीता नारायण - गुरुग्राम (हरियाणा)

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