फूल मुस्कुराते हैं - कविता - डॉ॰ कुमार विनोद

मुस्कुराने के लिए ज़रूरी नहीं
पूरी तरह
विज्ञापन में उतर जाना
इन्सान के लिए
तनाव रहित मस्तिष्क
और
पेट में अनाज का तिनका
होठों की परिधि में
मुस्कुराहट को संतुलित रखते हैं।

सिर्फ़ खुली हवा, पानी और धूप से
अहर्निश फूल मुस्कुराते हैं
इसीलिए
ज़िंदगी के अंत: सौंदर्य में
सबसे अच्छा है
मुस्कुराने का तरीक़ा फूलों से सीखना,
तमाम सक्रिय विरोधियों के होते हुए भी
मुस्कराने की तहज़ीब
नहीं छोड़ता है फूल।

भयंकर गर्मी, शीत, आँधी और तूफ़ान
इनके बीच मुस्कुराते रहना
कितना कठिन है
वह भी
ऐसे में,
जब सभी एक-एक कर बारी-बारी से
आज़माते हैं।
ये सही है कि
फूलों के लाख आग्रह पर भी
एक तबाही के बाद ही आँधियाँ ठहरती है
लेकिन-
इन सबके बावजूद
फूलों का मुस्कुराना कम नहीं होता।

समस्त अंतर्विरोधी गतिविधियाँ
जब फूलों की मुस्कुराहट को
कम नहीं कर पाती तो
एक अच्छे सहयोगी बन जाती हैं
और
अपनी विवशता में ही सही
साथ-साथ मुस्कुराती हैं,
मुस्कराने के क्रम में बढ़ जाती हैं
काँटों से भी उनको नज़दीकियाँ
लेकिन
इन सबसे अलग एक मुस्कुराहट इंसान की
ज़िंदगी में भी है
जो लुहार को धौंकनी में
ख़ुशी-ख़ुशी आग के साथ मिलकर
गढ़ लेता है-
घोड़ों के जबड़ों में लगाए जाने वाले लगाम
जिसके परम स्वाद से
अगला पैर हवा में उछालकर
ख़ुशी में
हिनहिना उठता है घोड़ा,
गढ़ लेता है एक हँसिया और फावड़ा
जिसके उपयोग से
लहलहाती फ़सल को देख
पूरा परिवेश मुस्कुरा उठता है।

ज़िंदगी के तमाम सूखे-हरे पत्ते झोंक चुकी
चौराहे पर दंतहीन श्यामल बुढ़िया
नब्बे वर्ष की अवस्था में
आँचल से नाक पोंछती
अनुभव की आँच में
रोज़ बहाती है
गरम बालू अपना पसीना,
ग्राहकों के आने पर
अठन्नी खूँटें में गठियाती
गरम बालू में दाने को खिलता देख
मुस्कुरा उठती है।

डॉ॰ कुमार विनोद - बांसडीह, बलिया (उत्तर प्रदेश)

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