मायूस धरती - कविता - डॉ॰ मीनू पूनिया

आँचल में मैंने तुम्हे खिलाया,
बारिश का निर्मल जल पिलाया,
आशियाना बनाने को दिया स्थान,
बरसाया मैंने तुम सब पर दुलार।
फल खाकर मेरे मिटाई भूख,
प्राकृतिक छटा से मन विभोर किया,
लेकिन नहीं समझा तूं महता मेरी,
आज खड़ी मैं पतन की कगार।
क्यों चीर रहा है नर तूं सीना मेरा,
क्षिण बना प्रफुल्लित जीवन सारा,
धरती माँ से बनी मायूस धरती,
कराह कर दर्द से मैं भरूँ हुंकार।
तन मेरे का कर दिया पोस्टमार्टम,
ज़हरीला धुआँ बना प्रदूषण का,
तंग होकर मैं इंसाफ़ माँगू तुझसे,
सुनले नर तूं मेरी दर्दनीय पुकार।

डॉ॰ मीनू पूनिया - जयपुर (राजस्थान)

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