कसक दिल की - कविता - प्रवीणा

मैं एक स्त्री हूँ और साथ ही साथ
किसी की बेटी तो किसी की बहू हूँ,
किसी की बहन, किसी की भाभी तो किसी की ननद हूँ,
किसी की पत्नी तो किसी की माँ हूँ।
हर किरदार हर भूमिका को
बख़ूबी निभाती हूँ,
हर इक रिश्ते के साथ इंसाफ़
करने की पुरज़ोर कोशिश करती हूँ।
मगर बदक़िस्मती से 
इतना कुछ करते करते
इस क़दर थक जाती हूँ 
कि ख़ुद के वजूद के साथ
ही नाइंसाफ़ी कर बैठती हूँ,
अपने दिल के इन पेचीदा गलियारों में
हर इक रिश्तों की चहलक़दमी को
महसूस करती हूँ,
मगर महसूस नहीं कर पाती तो वो है
ख़ुद के दिल की धड़कनों को
जो बेशक धड़कती भी हैं और
ज़िन्दा होने का अहसास भी दिलातीं हैं,
मगर ज़िंदगी में एक ज़िंदगी भी है
इस क़ीमती अहसास से कोसों दूर रखतीं हैं,
सच कहें तो अब स़िर्फ और स़िर्फ 
जीने की आदत सी हो गई है।
इक सारगर्भित ज़िंदगी की जुस्तुजू मानो
ख़त्म सी हो गई है,
हुआ करता था जो मन शादाब सा कभी
वो अब ख़िज़ाँ के हवाले हो चुका है,
अब तो औरों की ख़ुशी में ही अपनी
ख़ुशी तलाशने का फ़न सीख
इक बेहतरीन फ़नकार हो चुकी हूँ,
ना लब कभी किसी से शिकवा गिला करता है
नाहि आँखें कभी बरसने को बेताब होती हैं,
अश्कों का समंदर मानो पलकों के भीतर ही
क़ैद हो चुका है जो अपनी रवानगी का रास्ता
बेहद सब्र और नफ़ासत से
तन्हाई की आग़ोश में आते ही ढूँढ़ लेता है।

प्रवीणा - सहरसा (बिहार)

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