ट्रेन - कविता - शुभोदीप चट्टोपाधाय

ट्रेन की तेज़ रफ़्तार और मष्तिस्क की तेज़ गति 
दोनों को रू-ब-रू रखा 
आँख मूँदते ही मानो दोनों गहरे दोस्त बन गए
मेरे आँखों को सब धीमा धीमा नज़र आने लगा
तब ट्रेन की छुक-छुक 
मेरी धुक-धुक,
दोनों एक ही शरीर में ढल समा गई
एक क्षण के लिए मुझे ट्रेन की असीम 
शक्ति की अनुभूति हुई 
सारी जीवित चीज़े मुझसे दूर छिटक जाती थी
सिर्फ़ मुर्दे ही सामने टिके रहते थे,
जैसे वो कोई भावना हीन, स्नेह हीन, जीवन हीन,
मनुष्य हो;
फिर दूसरे ही क्षण मैं ट्रेन से 
और ट्रेन मुझसे, अलग हो गई,
तब नज़ारा और भी धीमा हो गया,
मुझे मेरी विराट, सवाक, अलौकिक 
ज़िन्दगी काफ़ी छोटी लगने लगी,
काफ़ी डरी, कोमल, कमज़ोर नज़र आने लगी,
मान, दान, ज्ञान, सब कीट लगने लगे,
अपमान, अज्ञान भाप बनने लगे,
ज़िन्दगी असहाय लगने लगी,
लगा सिर्फ़ एक छलाँग और सब ख़त्म
ये विराट रंगमंच गायब, पूरा गायब।

आँखे बंद किया, साँस ली 
पीछे घुमा,
तो इंसानो से लबलबाते सीटो को देखा
खड़ा हुआ, थोडा अंदर आया;
सोचा न जाने कितनो पर ये असीम 
शक्ति हावी होती है रोज़, हर दिन 
और जाना कारण उन जीवित जीवो की 
की क्यों वो मुझसे छिटक रहे थे।।

शुभोदीप चट्टोपाधाय - धनबाद (झारखण्ड)

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