विरह की अग्नि - कविता - भारमल गर्ग

बिंदी माथे पे सजाकर कर लिया सोलह शृंगार।
प्राणप्रिय आपकी राह में बिछाई पुष्प वह पगार।।

शय्या पर भी चुनट पड़ी बोले सारी-सारी रात।
नींद भी नहीं आ रही जगन मिलन की बात।।

विरह वेदना तन को जलाएँ नहीं कोई उपचार।
प्राणाधार के साथ में मेरे जीवन का हैं आधार।।

मन की यह यन्तणा क्या बताऊँ सजाना आज।
ओष्ठ चंचल चल रहे, सारंगी बिखरे तय साज।।

क्षीर-क्षीर की खीर भी बनाई आपकी अबला। 
राह चलते आज मिली थीं एक कुँवारी सबला।।

कई पहर बीत गए तकती हूँ प्रीत विहार के रास्ते।
चीं-चीं चूँ-चूँ से पुकारती है चिड़िया चिड़ा के वास्ते।।

पनघट पानी लेने गई सखियाँ मिली नदी के तट।
मन की बातें अधरो से कर रहीं पीर तीर खटपट।।

घर आँगन में बैठी बैठी चंदा को देखूँ हास विलास।
गायन वादन नृत्य करती रचती विरह में मधुमास।।

गीत सुनाती भँवरे उड़ा आती हूँ उस बगिया में आज।
पिया आपकी याद में तड़प रही हूँ रैन बसेरा में रात।।

भारमल गर्ग - जालोर (राजस्थान)

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