हिंदी की वीणा - कविता - कवि कुमार प्रिंस रस्तोगी

झनन-झनन झंकार उठे,
सरर सरर सर पवन चले,
टप-टप-टप बूँदे गिरे,
वसुधा पर अमृत धार पड़े,
वीणा की झंकार उठे।

वीणा के तारों से सरगम,
शब्द-शब्द में जाग उठे,
कल-कल-कल कर निनाद,
नदियाँ प्रवाह मे झूम उठे,
झनन-झनन झंकार उठे।

मीरा के पद घूँघरू से,
कान्हा को पुकार लगे,
कबीरा-तुलसी की वाणी से,
शब्द-अर्थ जग बोल उठे,
झनन-झनन झंकार उठे।

बजने लगी ज्यों घर-घर वीणा,
अवनी अम्बर भी ख़ूब रमे,
हिंदी पर बिन्दी ख़ूब जमे,
तोड़ बेड़ियाँ अंग्रेजी की,
हिंदी का स्वर जब गूँज उठे,
जब झनन-झनन झंकार उठे।

कवि कुमार प्रिंस रस्तोगी - सहआदतगंज, लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

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