रक्षा बंधन - कविता - शिव शरण सिंह चौहान 'अंशुमाली'

मैं आऊँगा रक्षा बंधन,
राखी मेरा अभिनंदन है।

पाती से मत भेजो राखी,
आ चरणों में शीश धरूँगा।
बचपन के उस अमर स्नेह को,
बहना मैं साकार करूँगा।
मुझे बता देना दु:ख सारे,
तन मन धन से पीर हरूँगा।

आऊँगा मैं धीर धरो तुम,
राखी तो मेरा वंदन है।

चलना फिरना कठिन तुम्हें है,
मैं उपहार लिए आऊँगा।
जब चरणों में शीश धरूँगा,
तब आशीष बहुत पाऊँगा।
बहना तुम तो तीरथ मेरा,
तुमको छोंड़ कहाँ जाऊँगा?

इन्द्र धनुष तारों से गूँथा
राखी तो मेरा चंदन है।

सपथ लिए हूँ रक्षा करना,
मैं जीवन बलिदान करूँगा।
अपने दु:ख मुझे दे देना,
संकट में मैं पीर हरूँगा।
तुम तो मेरी जीवन धारा,
बाँह पुलिन में तुम्हें धरूँगा।

अरे "अंशुमाली" की बहना!
काटो मेरा भव बंधन है।
मैं आऊँगा रक्षा बंधन,
राखी मेरा अभिनंदन है।

शिव शरण सिंह चौहान 'अंशुमाली' - फतेहपुर (उत्तर प्रदेश)

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