हालात (अफ़ग़ानिस्तान के) - कविता - मंजिरी 'निधि'

आज उजड़ा सा लगे, देख तेरा संसार,
संकट में दिखे मानव और घर द्वार।
कैसे और क्या करें, लगे यह मन कहाँ?
विपदा है आन पड़ी दुखी जन जन यहाँ।
बहुत ही दुःखी संसार लोग रोते हुए,
देख मानव भेड़ियों को स्वप्न खोते हुए।
कितने हुए अंधाधुंध गोलियों के शिकार,
कितने मार खा-खा कर मरने को तैयार।
छीन कर वे लोकतंत्र को ले गए,
अपने जाते दूर देख बिलखते हुए।
सारी इच्छाओं को बंदूक की नोंक पर पूरी करवा रहे,
महिलाएँ और बच्चे ज़ुल्म का शिकार हो रहे।
शर्मसार हुई सम्पूर्ण मानवता,
कहाँ जाए वो सारी जनता?
छोड़ निज घर द्वार तड़पकर,
जन चले विकट विपदा से हारकर।
कठपुतली बन नाच डोर उनके हाथ,
जब छोड़ चलें दुनिया नहीं है कोई साथ।
मचा हुआ हाहाकार खोज रहे हैं नव आधार,
नहीं उठा पा रही भू भार त्राहि त्राहि करती सरकार।
कुछ तो करो भगवन कब तक यूँ मूक रहोगे खड़े?
डर के साए में ये आज कब करोगे बेडापार।

मंजिरी 'निधि' - बड़ोदा (गुजरात)

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