दक्षिणपंथी पत्नी, वामपंथी रोटी एवं कोविड - कहानी - रामासुंदरम

आज सुमन को कोविड पॉजिटिव हुए पाँच दिन बीत चुके थे। अभी से उसे आइसोलेशन खाए जा रहा था। जिस घर की हर ईंट उसे पहचानती थी, वहीं उसे एक कोने में एकांतवास करना पड़ रहा था। घर में मात्र दो अदद प्राणी थे- एक वह स्वयं और दूसरे मोहित, उसके पति। बेटा रोहन गत दो वर्षों से एन आई टी, कोझिकोड़ में पढ़ रहा था। घर में दोनों का अपना अपना शेड्यूल था, सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था। पता नहीं इन सब के बीच कोविड कहाँ से टपक पड़ा। गले की खराश, माथे की तपिश उसे तोड़ रही थी। उस पर उसकी अनुपस्थिति में चौके की संभावित फ़ज़ीहत की कल्पना भी उसे झकझोर रही थी।

घर कितना भी बड़ा हो किसी भी गृहिणी के लिए किचेन ही मुख्य वर्क स्टेशन होता है जहाँ वह अमूमन किसी का दख़ल बर्दाश्त नहीं करती है। सारा घर अपना सही किन्तु किचेन की स्वायत्तता से किसी प्रकार का समझौता नहीं। अपवाद हो सकते हैं किन्तु कम से कम सुमन उस कोटि में नहीं थी।

जैसे तैसे मोहित दोनों वक़्त का भोजन बना रहे थे। खिचड़ी-तेहरी आदि से वह अब तक उब चुकी थी। स्वाद वैसे भी उड़ चुका था... ऊपर से आइसोलेशन के नाम पर यह घुटन... उफ... वह खीज उठी।

आज मोहित का ऑफ था। सबेरे के 10 बज चुके थे और किचन से बर्तनों की आवाज़ से उसे अंदाज़ हो गया था कि मोहित लंच की तैयारी में जुट चुके हैं।

अचानक उसने मोहित से वीडियो ऑन करने को कहा। जैसे ही उसे मोहित दिखाई दिए, वह बोली "ज़रा किचेन दिखाओ तो सही"।
मोहित बोले "क्या करोगी, अभी यहाँ तो आ नहीं सकती"।
फिर भी उसकी ज़िद्द पर उन्होंने कैमरा चारों तरफ़ घुमाया। जैसे जैसे कैमरा घूम रहा था, सुमन के माथे की ठनक बढ़ती जा रही थी। हमेशा तरतीब से लगी उसकी किचेन बिगड़ैल हालत में देखकर उसकी बेचैनी का ग्राफ अपनी पेंग बढ़ाने लगा। कैमरे से जबरन उसने अपनी नज़र हटा ली। फिर, अपने कमरे में नज़र घुमाकर देखा तो पाया कि कोविड आक्रामक अंदाज़ में उसका झोटा झकझोर रहा था।

स्लैब में मोहित ने बरतन, मसाले इकट्ठा कर रखे थे। बेतरतीबी का यह आलम उसे बहुत नागवार गुज़रा। पहले वह लिहाज में शांत रही -- किंतु जैसे ही वह अपनी किचन और मोहित की फैलाई किचन स्मरण करती, उसकी खीज उसे धकेल कर कुछ कर गुज़रने को मजबूर करती। उसने सोचा कि यों ही खीझते रहना ठीक नही है। और फिर यकायक उसने फिर मोहित को वीडियो कॉल लगाई और किचन की फ़ज़ीहत पर उन्हें टोका।

मोहित सधी किन्तु सपाट आवाज़ में बोले "मैं सहूलियत के लिए ऐसा कर रहा हूँ।"
वह झल्ला कर बोली, "इसे सहूलियत कहते हो। मेरा दिमाग़ ख़राब कर रहे हो। लगता है कुर्की के लिए सामान इकट्ठा हो रहा है।"

मोहित ने तुरंत वीडियो ऑफ कर दिया। ऑडियो पर ही बोले, "मत देखो यह सब। जब तुम चार्ज वापिस लेना तो फिर कस्टमाइज कर लेना"।

बिना खीज के अपनी लय में काम करते रहना मोहित की आदत थी। कोई कुछ भी कहता रहे उनको फ़र्क़ नहीं पड़ता था। और इधर वह अपनी किचेन को गृहस्थी का कंट्रोल रूम मानती थी। वहीं से वह घर और दुनिया की ख़बर रखती थी। मन तो उसका कर रहा था कि वह किचेन से मोहित को बाहर निकाले और झट पट दोनों का खाना तैयार कर दे। किन्तु कोविड प्रोटोकॉल उसे झपट्टा मारकर पीछे कमरे में धकेल रहे था। मन मसोस कर वह कुर्सी में धम्म से बैठ गई। बुखार, गले की अकड़न और उस पर भयंकर क्रोध, लगता था जैसे सर फट जाएगा।

अनायास "कुर्की" शब्द पर उसे हँसी आई, जाने यह शब्द उसके ज़ेहन में कहाँ से प्रवेश कर गया था। उसे लगा उसके होंठ, वितृष्णा में ही सही, कुछ फैले तो सही। उसने तुरंत मोबाइल में अपनी शक्ल देखी, उसे अपने आप पर ही हँसी आ गई। तल्ख़ मन और हँसी का यह कॉम्बिनेशन उसे बेढ़ब सा लगा।

थोड़ी देर में मोहित ने किचेन से उसे फोन किया और बोले,
"मैंने केसरोल में रोटियाँ रख दी है साथ ही सब्जी और आचार भी रख दिया है। माइक्रो वेव अवन तुम्हारे रूम मे ही है। समय से गरम कर खा लेना। हर घंटे बुखार नापती रहना। कुछ भी ज़रूरत हो तो मुझे आवाज़ दे देंना। मै ड्रॉइंग रूम मे ही बैठा हूँ।

फोन रखते ही सुमन मुस्कराई। रोटी, सब्जी और मिक्सड वेज के आचार का कॉम्बिनेशन उसे बहुत पसंद था। उसे ख़ूब याद था- विवाह के शुरू के दिनों में जब मोहित दफ़्तर जा चुके होते थे तब वह तवे में क्रिस्प हुई रोटी, आचार और एक कड़क चाय का नाश्ता खिड़की के पास रखी कुर्सी में बैठ कर करती थी। कितने सुकून से भरे वह क्षण होते थे- कोई चिल्ल पों नहीं। अपना साम्राज्य, एकांत एवम संतुष्टि का भाव- आख़िर यही तो सुख का पड़ाव है। इन्हीं क्षणों की स्मृति ने उसके मन में तैरते अवसाद को घोलने का प्रयास किया। ऊपर से मोहित ने उसकी प्रियोरिटी को ध्यान में भी रखा था- मिज़ाज पटरी पर आने के कारण स्पष्ट थे।

उसने झट पट दरवाज़ा खोला और बरतन अंदर किए। किन्तु जैसे ही कौतूहल से केसरोल खोला- एक अजीब सी बेचैनी ने उसे फिर घेर लिया।

ऐसी बेडौल रोटियाँ इतनी देर से बन रही थीं। एक भी नग रोटी की परिभाषा में फिट नहीं बैठता था। ज्यामिति के सभी आकार उनमें दिखते थे, मात्र गोलाकार को छोड़ कर। ऊपर से कुछ अधसिंकी। वह अब यह सब खाएगी क्या। दलिया और खिचड़ी क्या बुरी थी?

एक ओर अपरिपक्व रोटियाँ, दूसरी ओर बुखार की तपिश। संयम की बेड़ियाँ एक बार फिर टूटने की कगार पर पहुँच चुकीं थीं। लगता था सारे अजूबे आज ही होने थे।

थोड़ी देर में मोहित नहा धोकर ड्रॉइंग रूम मे पहुँचे। यहीं उनको इत्मीनान से पेपर पढ़ने की आदत थी। जैसे ही सुमन को खटर-पटर की आवाज़ सुनाई दी उसने तय किया- चलो अभी हिसाब करते हैं। उसने फोन लगाया और मोहित से बोली- "तुमने रोटियाँ बनाई है?"
"तुम्हे क्या लगती है?"
"मुझे ये रोटियाँ नहीं लग रहीं है"। उसकी आवाज़ से झल्लाहट साफ़ दिख रही थी।
"क्यों?"
"क्यों कि ये उपले ज़्यादा लग रहे हैं। क्या मै ऐसी ही रोटियाँ तुम्हे खिलाती हूँ?"

मोहित भी थोड़े अवसाद में थे। रोटियों के ठीक न बनने का म्लान जो था। पर किया क्या जाए। सीधे-सीधे ग़लती स्वीकार करना एक रास्ता तो था पर मन तैयार हो तब न।
शान और म्लान मिलकर कर जब मन में पसर जाएँ तो क्या किया जाए। मनोदशा में लगाम कसकर
मोहित हँसते हुए बोले,
"अच्छा... तो यह बताओ कि रोटियाँ गोल ही होनी चाहिए, कहाँ लिखा है? कहीं नहीं मिलेगा... बस चाहिए सबको गोल रोटी। मैंने कुछ प्रयोग किया तो इतना बवाल?"
"प्रयोग है यह? और क्या हर जगह प्रयोग किया जाता है।
कभी तो ढंग से काम करना चाहिए इंसान को। किसने कहा था रोटी बनाने के लिए।"

अपने स्वभाव के अनुकूल, मोहित मुस्कराए और बोले," प्रयोग के बिना प्रगति कैसे होगी, पर तुम दक्षिणपंथी लोग क्या जानो। लकीर के फकीर और क्या कर सकते हैं- कुछ नया करना तो तुम लोगों के ख़्याल में भी नहीं आता है।"
"इस घटिया तौर तरीक़े को तुम प्रयोग कहते हो और इसे प्रगति से जोड़ते हो?"
मोहित बोले "प्रयोग हमेशा नयापन देता है, तुम इसे घटिया कहकर इस तरह हाशिए में क़ैद नहीं कर सकती हो। हो सकता है यह प्रयोग ट्रांजिशन में हो। उनकी मुस्कुराहट जारी थी।"
"क्या?"
"मतलब कि हो सकता है कि प्रयोग अपने मुकाम में अभी न पहुँचा हो, मात्र रास्ता ही तय कर रहा हो।
"कहाँ है, तुम्हारे प्रयोग का मुक़ाम। आख़िर गोल ही रोटी तो बनाओगे या फिर जो तुमने बनाई है उसमे भी टाँके लगाओगे।"
मोहित कुछ रुके और बोले "ये तुम नहीं, तुम्हारी मानसिकता बोल रही है।"
सुमन एक स्केल और ऊपर जाने को थी किंतु अनायास वह एक पग पीछे हटी और फिर उसने एक डेरिवेटिव तर्क दागा "मैं प्रयोग नहीं करती तो मैं दक्षिणपंथी हूँ और तुम प्रयोग के नाम पर जो रोटी बना रहे हो उसका क्या। मै तभी कहुँ कि वामपंथी कहें कुछ, करें कुछ।"

यों तो सुमन पोस्ट ग्रेजुएट थी, अख़बार रोज़ पढ़ती थी। वह जानती थी छोटे मोटे पाले तो घर गृहस्थी में खिंचते रहते हैं जिसमे दोनो पक्ष कुछ ना कुछ बोलते रहने में उतारू रहते हैं। शब्दों के चयन से भला क्या लेना देना... अरे बिना सोचे समझे मोहित ने उसे दक्षिणपंथी करार दिया तो वह भला क्यों चूके। कोई थीसिस थोड़ा लिखनी है... और इसी चक्कर में बेचारा वामपंथ धर लिया गया।

तर्क या फिर कुतर्क के अचानक इस तरह मुड़ जाने पर मोहित, कुर्सी में थोड़ा और पीछे सरक कर बैठे। फिर थोड़ा सहज होकर बोले "क्या मतलब है तुम्हारा।"

सुमन बोली "खाते गोल रोटी हो और प्रयोग के नाम पर बेडौल दूसरों को खिलाने कि सोचते हो।"
मोहित मुस्कराते बोले, "अरे मैं भी तो यही बेडौल रोटियाँ खाऊँगा।"
तभी सुमन को लगा कि अरे ये रोटियाँ सिर्फ़ उसके लिए नहीं थीं बल्कि मोहित भी उन्हीं रोटियाँ का लंच करेंगे। यह विचार आते ही उसकी नसों में थोड़ी लचक आई। पत्नी जो थी उनकी।
यह भाव उसे निचली गियर पर ले गया। वह बोली "चलो तुम वामपंथी नहीं हो, पर यह कैसे कह सकते हो कि जो प्रयोग ना करे वह दक्षिणपंथी या फिर पुरातन पंथी होता है।"
मोहित बोले "और क्या, वहीं ढाक के तीन पात। कुछ नयापन नहीं। कुएँ के मेढक।"

गृहस्थी के वाक्युद्ध में शब्दावलियाँ प्रबल हो सकती हैं किंतु उनका तार्किक होना ज़रूरी नहीं होता है। उनकी परिधि भी बिचकानी सी होती है। केंद्र से उठते हुए वह भरभरा कर तो निकलती है किन्तु थोड़े समय में वह छितरा जाती है। खिन्नता को संवेदनाओं से मानों समझौता करना ही पड़ता है। फिर दूसरा दिन सहमति जताने का होता है। मसलन, एक कहता है तुम चाय बनाओ मै चौराहे से समोसे ला रहा हूँ। दूसरी ओर से आवाज़ आती है "धूप इतनी तेज़ है, कहीं जाने की ज़रूरत नहीं है"। पर मौक़ा कौन छोड़े। पहला बात जारी करते हुए कहता है "धूप कहाँ है, तीन बजने वाले हैं। जेठ के महीने में भी शाम तो होती ही है। और तुम भी तो उसी के समोसे पसंद करती हो।"
और गृहस्थी का दूसरा बिम्ब सिग्नल मिलते ही, लौंग इलायची की चाय की तैयारी करता दिखता है।

यह सब सोचते सोचते सुमन बोली, तुम कहते हो दक्षिणपंथी प्रयोग नहीं करते या फिर करने से डरते है।"
"और नहीं तो क्या।"
"तुम्हारे हिसाब से मै दक्षिणपंथी हूँ"l
"बिल्कुल"।
"बच्चू, भूल गए आज से तीस बरस पहले मैंने भी एक प्रयोग किया था।"
मोहित मुस्कराए। सुमन भी मुस्कुराती सी बोली "बोलूँ या फिर वामपंथी महाशय सब कुछ समझ गए।"
झल्लाहट से मुस्कराहट कि यात्रा पर निकल चुकी सुमन समझ नहीं पा रही थी कि इस विवाद में वह जीती या फिर हार गई... ना... ना। हारना तो उसने सीखा ही नहीं।

यहीं सब सोचते हुए एक चिर परिचित कविता के अंश उसे याद आ गए। वह गुनगुनाने लगी,
"नश्वर स्वर से कैसे गाऊँ,
आज अनश्वर गीत,
जीवन की इस प्रथम हार में
कैसे मानूँ जीत"

उधर मोहित भी आत्म मंथन करने लगे। स्वयं से उन्होंने प्रश्न किया "मोहित, सही बताओ क्या तुम प्रयोग कर रहे थे?"
झिझकते हुए वे बोले "हाँ... हाँ... और नहीं तो क्या"
"क्या तुम मानते हो कि आम रास्ते से कुछ हटकर करने के प्रयास को ही प्रयोग कहते है"
"मै कब मना कर रहा हूँ, पर यह सब मुझसे क्यों?"
"इसलिए कि तुम गोल रोटी बनाना ही नहीं जानते हो... और कोशिश गोल रोटी की ही कर रहे थे... और बना डाली।"
"नहीं बनी तो मै क्या करूँ सुमन को रोटी खिलाने का वादा जो कर चुका था।"
"ये हुई ना बात... तो तुम प्रयोग नहीं कर रहे थे... फिर तो तुम ना वामपंथी निकले ना दक्षिणपंथी"।
मोहित थोड़ा मुस्कराए।
भीतर से फिर आवाज़ उठी "तुम हो हांकूदीन, दुनिया भर की गप्प कोई तुम से सुने।"
शर्म से भरी एक छोटी सी मुस्कराहट अनायास मोहित के चेहरे पर आ गई।

कुर्सी से उठते हुए मोहित बोले "डेढ़ बज गए हैं। अब मैं चला बेडौल रोटियों का सेवन करने।"

दोनों आश्वस्त थे कि विवाद फुस्स हो चुका है। परिधि पर तो उसे पहुँचना ही था। दाम्पत्य जीवन के व्यक्तिगत खेमे जितने भी सख़्त-नुमा दरख़्त क्यों ना हों, उनमें अपनी माटी छोड़ दूसरे की ओर चलने की आदत होती है... कभी धीमे तो कभी तेज़। शायद इसीलिए कहते होंगें कि... पेड़-पौधों में भी जान होती है।

इधर सुमन ने केसरोल खोला, एक-एक सो कॉल्ड रोटी परखी। उनका दीदार करते करते उसे हँसी आ गई। उसे महसूस हुआ कि रोटी तो बस थाली तक ही होती है, मुँह में जाकर तो उसे चरणामृत की कोटि में ही पहुँचना पड़ता है, फिर वह रोटी किस काम की जो खाई ना जाए, चाहे गोल हो या फिर बेडौल। फिर उसने एक कौर तोड़ा, उसे सब्जी नुमा तरल पदार्थ में भिगोया और जैसे ही निवाला मुँह में गया उसे लगा कि वामपंथी रोटियाँ तो यार सही में ग़ज़ब की हैं। अगला गस्सा उसने आचार के साथ ट्राई किया। वह स्वाद में उसे और भी निराला लगा।
यहीं सब सोचते-सोचते उसने अपने हिस्से की तीन बेडौल रोटियाँ ख़त्म की और पाया कि स्वाद और तस्सली का कोई सीधा रिश्ता ज़रूर है। बिना तसल्ली के तो अमृत भी फीका लगे।

उसने तय किया कि ठीक होकर पहले ही दिन ऐसी ही बेडौल रोटियाँ और मोहित की कोई फेवरेट सब्जी लंच के लिए पैक कर देगी। फिर एक स्लिप में लिखेगी,
"वामपंथी रोटियाँ"
"तोहफ़े स्वरूप एक दक्षिणपंथी पत्नी की ओर से"
और उसे भी डिब्बे में सरका देगी।
एक और हँसी का फव्वारा उसके मन से फूटा।

इसी क्रम में वह फिर हँसने लगी। हौले से मुस्कराते हुए उसे महसूस हुआ कि गर्दन में तनाव कुछ कम हुआ है। फिर वह कुर्सी से उठकर ज़मीन में पाल्थी मारकर बैठ गई। उसे लगा कि अब गहरी साँस लेनी चाहिए। जैसे ही उसने साँस भरी, एक अजीब सी शीतलता उसके शरीर में प्रवेश कर गई और फिर जब उसने श्वास छोड़ी तो उसे लगा जैसे उसके इर्द गिर्द ऊर्जा का प्रवाह हो रहा है, उसने यह क्रम कुछ क्षण जारी रखा। उसकी तल्ख़ी अब उड़ चुकी थी। उसे लगा अब वह पुराने मोहल्ले को छोड़ने की कगार पर है।
उसने गहरी साँस लेने और छोड़ने का क्रम जारी रखा। इसी बीच मोबाइल पर नोटिफिकेशन की रिंग बजी। उसने फोन उठाया, अनलॉक किया और फिर स्क्रॉल करने लगी।
कुछ वीडियो थे... कुछ फॉरवर्डस थे। उसने सरसराती नज़रों से कुछ को देखा। फिर एक वीडियो में उसकी नज़र थम गई। लब्बोलुआब वीडियो का यह था कि कोविड मरीजों को कोशिश करनी चाहिए कि वे घबराहट और बेचैनी से अपने को दूर रखें। आत्मविश्वास बनाए रखें और निहित प्रोटोकॉल का अनुसरण करें। यों तो वीडियो कुछ ख़ास नहीं था पर उसे लगा कि यह सब तो वह कर ही रही है। मतलब सही रास्ते पर ही है।

जितने भी प्राणायाम उसे मालूम थे, उन सभी को उसने एक-दो बार दोहराया। कमरे के चारों तरफ़ कुछ चक्कर लगाए और फिर वापिस कुर्सी में बैठ गई। अब काफ़ी मोटिवेटेड थी वह। सबेरे का घनचक्कर काफूर हो चुका था। उसने माथे में हाथ लगाया, तपिश थी उसमें किन्तु तराजू की दूसरी बाज़ू में उसने अपनी ऊर्जा रखी और पाया कि बुखार को मात देने का मादा उसमें भरपूर है। सर का दर्द कहीं दूर अपनी उपस्थिति का बोध करा रहा था किन्तु उसकी ऊर्जा की लक्ष्मण रेखा के इस पार आने का मानो उसमे दम ना था।
विजय कितनी भी छोटी क्यों ना हो वह शक्ति भरपूर देती है। यहीं सुमन का हाल था।

तभी उसने कमरे में नज़र दौड़ाई। कोविड, जो सबेरे अर्रा रहा था, उसके काँटे अब कुछ मोथरे हो चुके थे। वह एक कोने में मिमिया रहा था।
उसे देखते है वह बोली "अब तुझसे निबटने का नंबर है। तू तो जानता ही है मै छोड़ती किसी को नहीं हूँ।"

फिर उसे लगा कि कमरे में पड़े बेड और दीवार के बीच में बहुत कम गैप है। अक्सर वह हिस्सा सफाई से इसी कारण वंचित रह जाता है। उसने कुछ सोचा। फिर, वह भारी भरकम बेड को खिसकाने का प्रयास करने लगी। वह हिलने का नाम नहीं ले रहा था। उसने बेड शीट को अलग फेंका, फिर गद्दों को हटाने लगी। उसका विचार था कि कमबख़्त पलंग फिर तो हिलेगा ही।

कमरे से इस प्रक्रिया में निकली आवाज़ें मोहित के आराम में ख़लल डालने लगी। वे कमरे के पास आए और बोले "क्या कर रही हो।"
सुमन बोली "कुछ नहीं, बस पंजा लड़ा रही हूँ।"
"किसके साथ?"
वह बोली "कमरे में है कौन, कोविड के अतिरिक्त।"
मोहित बोले "ज़रा संभल कर।"
सुमन बोली "यह मुझसे नहीं, कोविड से कहो"।
उसके मनोबल का गिलास लबालब सा दिख रहा था।
मोहित मुस्कराए और कमरे के बाहर से बोल उठे "यह आत्मबल तुम्हे दवा से मिला या फिर उपलों ऐसी रोटी से?"
भीतर से सुमन की आवाज़ आई "वामपंथी रोटी से"।
और फिर घर दोनों के ठहाकों से गूँज उठा।

उधर बेचारा कोविड उसका बड़ा बुरा हाल था। आया था रुलाने को... पंख फैलाने को... पर अब कमरा छोड़ कर भागने की तैयारी में था। सोच रहा था... निकलूँ कैसे? उसका गिरेबान जो सुमन ने दबोच रखा था। पूरा रिंग वह अपने क़ब्ज़े में करने के कगार पर थी। मिमियता सा कोविड बोला "बाहर निकलो तो बताऊँगा, यहाँ हावी गई तो क्या? सुमन बोली," बाहर की बाद में देखूँगी, अभी तो यहीं पिट ले तू।"

और फिर १५ दिन बाद जब आइसोलेशन ख़त्म हुआ तो कोविड लंगड़ाता सा, आँसू पोछता हुआ बाहर निकल रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे कोई शातिर पुलिस के चंगुल में कई दिन बाद आया हो और थाने में आवभगत के बाद उसे आज हवालात से निकाल कर कोर्ट में पेश किया जा रहा हो। इधर सुमन अपने में ग़ज़ब का उत्साह महसूस कर रही थी। उसने वााशिंग मशीन में कपड़े डाले, फिर नहाकर झट-पट चाय बनाई। मोहित को चाय देकर उसने किचन को अरेंज किया। वह चाय भी साथ साथ पीती जा रही थी। इसी बीच मोहित ड्राइंग रूम से बोले "भई, आज क्या बनाने का कार्यक्रम है।
सुमन हँसते हुए बोली "सोंचती हूँ आज तुम्हें मशरूम मटर की सब्जी टिफिन में बाँध दूँ।"
मोहित के चेहरे में यह सुनते ही रौनक आ गई। वे मुस्कराते हुए बोले "साथ में पराठे मत पैक करना। अब पराठों की उम्र गई"।

मुस्कराते हुए तुरंत सुमन बोली "पराठे,... किसने कहाँ मैं बना रही हूँ। आज तो तुम्हे वामपंथी रोटी टिफिन में ले जानी होगी।"

यह सुनते ही मोहित ठहाके मारकर हँसने लगे।

उनका घर अब औपचारिक रूप से कोविद फ्री हो चुका था।

रामासुंदरम - आगरा (उत्तर प्रदेश)

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