प्रहलाद मंडल - कसवा गोड्डा, गोड्डा (झारखंड)
देश के दहलीज़ पर चलें - कविता - प्रहलाद मंडल
रविवार, अगस्त 15, 2021
जिन मिट्टी के हैं उगे फ़सल
हम उन मिट्टी के होने चले,
मैं चला उसे रोकने
जो देश के दहलीज़ पर
आकर हैं खड़े।
खेतों से कभी आवाज़ें दे पिताजी
तो मेरे ना रहते भी,
मेरे नाम की हाज़िरी लगा देना।
माताजी की उदासी बढ़ेगी
मेरे बारे में सोच सोच कर,
बस कभी फ़ुर्सत मिले
तो मेरे ना रहते भी
उनकी मुस्कुराहट की वजह
बनने की कोशिश करना।
वैसे कह दिया हूँ पिताजी को
जैसे फ़सलों में लगते हैं
कीड़े मकोड़े फ़सल बिगाड़ने को,
वैसे ही हमारे वतन की हरियाली पर
कीड़े मकोड़े की तरह मंडराते रहते हैं दुश्मन,
मैं दवाई बनकर उसे भगाने जा रहा हूँ।
और कह दिया हैं माँ को भी,
जैसें घर के दरवाज़े पे
तूं टाँगी हैं ना नींबू-मिर्च
कि बुरी शक्तियाँ घर में ना आएँ,
ठीक वैसे ही माँ
देश के दहलीज़ पर
पूरे वतन की रक्षा के लिए
मैं वहाँ खड़ा होने जा रहा हूँ।
अगर मेरे बारे में पूछेंगी वो
तों उन तक मेरा ये संदेश पहुँचा देना,
प्रेम मेरा अभी भी उनसे कम हुआ नहीं हैं
और ना ही होगा,
लेकिन उनसे अधिक प्रेम हमेशा रहा हैं
मुझे अपने वतन से,
और मैं अपने पहले प्रेम की रक्षा के लिए
जा रहा हूँ।
यारों तुम अपना भी ख़्याल रखना
और कोशिशें करना चुपके चुपके
देश को खोखला करने वाले को रोकने की,
ये बाहरी दुश्मन से अधिक घातक हैं।
जिन मिट्टी के हैं उगे फ़सल
हम उन मिट्टी के होने चले,
मैं चला उसे रोकने
जो देश के दहलीज़ पर
आकर हैं खड़े।
जय हिन्द!
वन्दे मातरम्!
भारत माता की जय!
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