अपरिचित या मित्र - कविता - आराधना प्रियदर्शनी

इतने सालों बाद,
सोचने की ख़ुद को वजह दी है,
संजोग है या ईश्वर का इशारा,
दिल में तुमको जो जगह दी है।

ये मन कभी तुमको तो कभी,
जैसे ख़ुद को समझाता हो,
वो भी कर देता है मुमकिन,
जो ना औरों के लिए कर पाता हो।

ना जाने क्यों इतने ज़ख़्मों के बाद भी,
क्यों मन ने तुमको स्वीकार किया,
शायद ये भी हो एक छलावा कोई,
फिर भी अपनापन और प्यार दिया।

तुम ख़ुद ही चलकर आए,
मैं तो बिलकुल अंजान थी,
मेरी परछाई ही थी साथी मेरी,
ख़ामोशियाँ ही जैसे पहचान थी।

प्यार पहले भी था लोगो से,
प्यार तो अब भी करती हूँ,
पर किसीको अपनाने से पहले,
आज भी उतना ही डरती हूँ।

ना छोडूँगी मैं साथ तुम्हारा,
आज यह वादा करती हूँ,
कभी दिल ना दुखेगा तुमसे मेरा,
ऐसी आशा मैं करती हूँ।

हम हो हर सुख दुख के साथी,
एक दूजे के सहायक हो,
सदा पवित्रा रहे ये रिश्ता,
ये दिन दोस्ती का तुम्हें मुबारक हो। 

बूझो तो एक पहेली हो,
कल्पनाओं का रंगीन चलचित्र हो,
यह नाता है असमंजस एक सवाल का कि तुम,
अपरिचित हो या मित्र हो। 

आराधना प्रियदर्शनी - हज़ारीबाग (झारखंड)

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