सुरेंद्र प्रजापति - बलिया, गया (बिहार)
कल्पने, धीरे-धीरे बोल - कविता - सुरेंद्र प्रजापति
मंगलवार, जुलाई 06, 2021
कल्पने, धीरे-धीरे बोल।
बोल रही जो स्वप्न उबलकर
विह्वल दर्दीले स्वर में,
कुछ वैसी ही आग सोई है
मेरे, लघु अंतर में।
इस पुण्य धरा पर देखो,
खड़ा मृत्यु मुख खोल,
कल्पने! धीरे-धीरे बोल।
फल्गु का जल सुख गया,
धारा में पड़ी दरारें,
मन्दिर के देवता ऊँघ रहे हैं
मन्त्र करती चित्कारें।
शिखा सुलग रही है मन मे
जीवन रहा है डोल,
कल्पने! धीरे-धीरे बोल।
श्री विष्णु का चरणचिह्न
अमृत से भय खाता,
अँधेरों का दीप जलाकर
वेदना का गीत गाता।
सुधामयी पवन में संक्रमण
विष रहा है घोल,
कल्पने! धीरे-धीरे बोल।
आज प्रभात की किरनें भयभीत
सुलग रहे हैं तारे,
फूलों से ख़ुशबू निर्वासित
झड़ते तप्त अँगारे।
मन की दीप्ति संभाल,
अब जीवन का बोलो मोल,
कल्पने! धीरे-धीरे बोल।
जल रही है रजनी दाह से
सुलग उठी चिंगारी,
जल रही चिताएँ तट पर
जलता केशर क्यारी।
वीणा की लय में, काँप रहा
है, सारा विश्व भूगोल,
कल्पने! धीरे-धीरे बोल।
भाग्य विचित्र खेल खेलता
छूट गए हैं अपने,
साध-साधना दहक रही है
टूट गए हैं सपने।
किसी दुष्ट दानव की ईर्ष्या
विष, रहा है खौल,
कल्पने! धीरे-धीरे बोल।
दया शांति का संदेश,
तेरा वसन जला जाता है,
मानव, मानव के स्वर में
प्रलय घिर-घिर आता है।
आँसूओं के आवेग से जग का
हृदय रहा है डोल,
कल्पने! धीरे-धीरे बोल।
लाखों मानव के आँखों से
झरने रोज़ बहेंगे,
अंतर की पगडंडियाँ टूटी
शिखा की व्याल दहेंगे।
जीवन की घावों को कुरेदना
लगा पाप का बोल,
कल्पने! धीरे-धीरे बोल।
एक युक्ति है सुनो मित्रवर!
दर्द में तुम हँस लो,
मन की पीड़ा, विश्वास से जीतो
विपत्तियों में बस लो।
शृंगार करेगी व्यथा, कथा में
होंगे मीठे बोल,
कल्पने! धीरे-धीरे बोल।
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