मूर्ति - कविता - आराधना प्रियदर्शनी

मौन रहकर भी सबकुछ कहती है,
मन मे भक्ति बनकर रहती है,
ये स्थित होती है धर्म स्थलों में,
निर्जीव होकर भी जीवन्त रहती है।

कभी मुस्काती, कभी हँसाती,
डुबोती बचपन को प्यार में,
ख़ुशी देती है ख़ुद अचल होकर,
जो बिकती है बाज़ार में।

कभी ये धरकर रूप शहीदों का,
हमको उनकी याद दिलाए,
कभी चँचलता, कभी मृदुलता देकर,
हर मूर्ति जीवन दर्शाए।
       
कभी तो अपने हास्य विनोद से,
तरह तरह के रंग दिखलाए,
कभी नयन मे करुणा भरकर,
सागर अश्रु मोति छलकाए।

हमेशा सजी नई संवेदनाओं से,
और नई स्फूर्ति से,
पाते हम जीने की प्रेरणा,
इक बे-जान मूर्ति से।

आराधना प्रियदर्शनी - बेंगलुरु (कर्नाटक)

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