मेरी प्रियतमा - कविता - भगवत पटेल

जब से चला में तेरी ओर,
प्यार का पाया ओर न छोर।  

आँखें हैं सुरमा सी काली,
गालों में गुलाब की लाली।
मस्तक में बिंदिया चमक रही,
सर पर चुनरी दमक रही।।
खिंचता जाऊँ उसकी ओर,
जब से चला...।

कोयल जैसी उसकी बोली,
चेहरे से है लगती भोली।
झूमे जैसे लता की डाली,
बादल बन बरसे मतवाली।।
ऐसे नाचे जैसे मोर,
जब से चला...।

रात में सोवे मचा के शोर,
जागे जब हो जाए भोर।
दिन में करती प्रेम अनोखा,
रात में सो जाएँ देकर धोखा।।
उसके प्रेम का नही है छोर,
जब से चला...।

बतियाँ उसकी सुंदर न्यारी, 
मुझको लगती बहुत ही प्यारी।
बाँध कर अपनी प्रेम की डोर,
मन हो जाए भाव विभोर।।
दिखे मुझे वो चारों ओर,
जब से चला...।

स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है, 
निशा धवल सी सजी हुई है।
एक टक मैं उसको देखूँ,
कैसे मैं ख़ुद को रोकूँ?
वो तो लागे चाँद चकोर,
जब से चला...।

शर्मीली हैं उसकी आँखें,
मन की बात मन में ही राखें। 
मिले बिना ना आए चैन,
कटे नही बिन उसके रैन।
ऐसी है मेरी चितचोर,
जब से चला...।

बात करेगी बड़ी बड़ी,
काम करेगी डरी डरी।
सादा जीवन उच्च विचार,
करती सदा अनोखा प्यार।।
प्रेम की हिय में उठत हिलोर,
जब से चला...।

मन की उजली है मतवाली,
उसकी है हर बात निराली।
मिलूँ अगर हो जाऊँ पूरा,
लगूँ मैं बिन मिले अधूरा।। 
मन में मिलने का है जोर,
जब से चला...।

भगवत पटेल - जालौन (उत्तर प्रदेश)

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