बादल - कविता - डॉ. ममता पंकज

वो देखो दूर गगन में 
बादलों के अंक में,
प्रेम पनप रहा है।

गरजता हुआ मिलन
ये प्रणय निवेदन,
गहरा झाँक रहा है।

ऐनक जैसा आवरण
देख रहा लावण्य,
साथ विचर रहा है।

कहीं ये बरस न जाए 
अद्भूत जोड़ी भाए,
कैसा सँवर रहा है?

पूछो तो इन बावलों से
नेह-बूँद प्यालों से
कहाँ भटक रहा है?

मिलन की गहरी बातें
कहने में कटती रातें,
दिन में शरमा रहा है।

डॉ. ममता पंकज - लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

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