गर्मी की छुट्टियाँ - संस्मरण - मंजिरी "निधि"

आज विद्यालय में वार्षिक परिणाम लेने जाना था। हरे गुलाबी रंग के गत्ते पर परिणाम मिलते थे। वह परिणाम क्या है क्या नहीं कोइ मतलब नहीं हुआ करता था। ख़ुशी होती कि परिणाम आ गया अब कल से विद्यालय को छुट्टी, नानी के घर ग्वालियर में गर्मियों की छुट्टी बिताने की ख़ुशी और मामाजी की बेटी से मिलने की ख़ुशी जो हम-उम्र ही थी। रोज़ माँ के पीछे लगना कब चलेंगे? कब चलेंगे?
और जब माँ कपड़ों को संदूक मे सजाती तब जान में जान आती कि अब तो पक्के से जाएँगे। जब शाम को माँ पूड़ी और आलू की तली सब्जी बनाती तब तो ख़ुशी का ठिकाना ही न होता। दूसरे दिन जल्दी उठ कर नहा धोकर हम तैयार हो जाते। संदूक, खाने का डिब्बा, कपड़े की मसक जो पीने के पानी से भरी होती थी ले निकलते। रेलगाड़ी मे बैठते ही कपड़े की मसक को पानी ठंडा करने खिड़की के बाहर बाँध दिया जाता। उन दिनों डीजल वाले इंजिन की रेलगाड़ी याने अमीरों की लगती। सुबह 6 बजे हमारी सवारी सुपर फास्ट पंजाब मेल में चढ़ती। जितने भी स्टेशन पर रुकती हम उसका नाम लिखते जाते और जहाँ नहीं रुकती उनका नाम ही पढ़ नहीं पाते। उन स्टेशन के लोगों को चिढ़ाते आगे बढ़ते। फिर मूंगफली वाला आता तो उससे मूंगफली लेकर खाते। तब तक माँ अख़बार निकाल कर हमको अपने अपने डिब्बे देती और हम चटख़ारे लेकर खाते। ऊपर वाली सीट पर कई बार चढ़ते उतरते। उन दिनों वह सीढ़ी भी माउन्ट एवरेस्ट पर चढने का एहसास दिला जाती। दोपहर की चाय तक तो हम और दिल्ली वाली मौसी भी अपने बच्चों संग नानी के घर पहुँच जाते। नानी के घर हमको ज़्यादा तवज्जोह मिलती। मामाजी ताँगे मे बिठाकर कभी राजवाडे पर आम का रस, गन्ने का रस पिलाने ले जाते तो कभी चिड़िया-घर। दोपहर को टन टन वाले की आइसक्रीम मिलती, कभी बर्फ़ का गोला या कभी मामीजी नमक डालकर मशीन मे आइसक्रीम बनाती। नानी का घर बग़ीचे के बीच मे था। आज़ू-बाज़ू आँवला, नीम, अमरुद, निम्बू के बहुत सारे पेड़ लगे थे। मैं और मेरी ममेरी बहन दोपहर मे उन पेड़ों की छाँव मे घंटों नंदन, चंपक की कहानियाँ पढ़ते। मामाजी बर्फ़ लाते उसे हम धोकर पानी के बघोने में डालते और बचा हुआ इगलू के आइस बॉक्स मे रखते। नानी के कमरे के बाहर खस का पर्दा लटका रहता। उस पर्दे को हर दो घंटे बाद गीला करने की हमारी ड्यूटी रहती। शाम होते ही छत पर जाकर पानी डालते, बिस्तर डालते जिससे वे ठन्डे होते। वहाँ कभी कैरम कभी ताश कभी व्यापार (एक क़िस्म का बोर्ड बिज़नेस गेम) तो कभी अष्टा चंगा (एक क़िस्म का भारतीय बोर्ड गेम - चौका भारा/कटे माने/रणनीति खेल) पे खेलते। खा कर सोते तब सप्त ऋषियों को ढूँढते ढूँढते कब नींद लगती मालूम ही नहीं पड़ता। सुबह हम कभी गिल्ली डंडा कभी सितोलिया (इस खेल को राष्ट्रीय स्तर पर एक नाम दिया गया है जो है लगोरी) खेलते। वो 60 दिन बहुत जल्दी ख़त्म हो जाते। न गर्मीं का एहसास होता न कूलर की कमी खलती। कितने मस्ती भरे दिन थे वे। वापस आने का दिल ही न करता। जब माँ नई किताबें, कॉपीयों (नोटबुक्स) पर कवर चढ़ाने की बात याद दिलाती तब फिर दिल घर वापस आने को करता। काश उम्र घट पाती और हम फिर से बच्चे बन जाते।

मंजिरी "निधि" - बड़ोदा (गुजरात)

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