शिक्षा का मंदिर - लघुकथा - नृपेंद्र शर्मा "सागर"

जय प्रकाश कोई बीस साल बाद गाँव लौटा तो उसके क़दम अनायास की गाँव से सटे जँगल की और बढ़ गए जहाँ एक दूर तक फैला हुआ आश्रम था। आश्रम के मुख्यद्वार पर एक लकड़ी की बड़ी सी तख़्ती लगी हुई थी, जिसपर मिट चुके अक्षरों में लिखा हुआ था "शिक्षा का मंदिर"।
जेपी जी हाँ अब जय प्रकाश को शहर में लोग इसी नाम से जानते थे, ने अपना बचपन और अपनी प्रारंभिक शिक्षा इसी आश्रम में प्राप्त की थी।

पण्डित बलदेव प्रसाद शास्त्री जी ने अपनी कोई चार एकड़ ज़मीन में यह आश्रम बनाया था जहाँ वे अपनी पत्नी सहित बच्चों को संस्कार युक्त शिक्षा देते थे। उनके आश्रम में दूर-दूर से बच्चे पढ़ने के लिए आते थे।
आश्रम में बच्चों के रहने और खाने की भी बहुत उत्तम व्यवस्था थी। सभी बच्चों को स्वावलंबी बनाने की पण्डित जी की प्राथमिकता रहती थी।
आश्रम से पढ़े अनेकों बच्चे देश-विदेश में उच्च पदों पर कार्य कर रहे थे।

जेपी भी शहर में एक मल्टीनेशनल कंपनी में मुख्य अधिशासी के पद पर कार्य कर रहा था। जेपी को आश्रम को उजड़ा देखकर घोर आश्चर्य हो रहा था। वह द्वार पर उग आई जंगली लताओं को हटाकर द्वार के अंदर जाने लगा।
अभी उसने क़दम बढ़ाया ही थी कि उसने पीछे से एक आवाज़ सुनी, "कहाँ जा रहे हो साहब जी? अब यहाँ कोई नहीं रहता"।
"लेकिन ये आश्रम...?" जेपी ने पलटते हुए पूछा।
जेपी ने देखा पीछे एक बूढ़ा आदमी लाठी पकड़े खड़ा था।
"हाँ साहब आए थे एक संत स्वभाव के पण्डित जी जिन्होंने अपना सबकुछ लगाकर ये मंदिर बनाया था, लेकिन धीरे-धीरे आधुनिकता की दौड़ में लोगों को ये संस्कार-शाला अच्छी लगनी बन्द हो गई। और जब सन्त ने देखा कि लोगों को संस्कार और जीवन मूल्य सीखने से अधिक रुचि पाश्चत्य चीज़ों में हो रही है तो वे अंदर से आहत हो गए और एक दिन चले गए सबको छोड़कर। माता जी भी उनसे बिछोह सह नहीं पाईं और तीसरे ही दिन वे भी देह छोड़ गईं।
बाकी रही बात आश्रम की तो साहब सन्त की माया थी जो उनके ही साथ चली गई।
आश्रम में छात्र तो ऐसे भी ना के बराबर ही रहते थे जो उनके जाते ही चले गए थे। किसी ने भी गुरु के काम को आगे बढ़ाकर इस आश्रम को संभालने की कोशिश नहीं कि।
तो साहब "अब यहाँ कोई नहीं रहता।" बूढ़े ने कहा और  लाठी खटखटाता एक ओर चल दिया।

जेपी का दिल जैसे बैठ सा गया था।
वह आश्रम को पुनः संचालित करने की योजना अपने दिमाग में बना रहा था। उसके कानों में बार-बार बूढ़े के शब्द गूँज रहे थे, "अब यहाँ कोई नहीं रहता साहब"।

नृपेंद्र शर्मा "सागर" - मुरादाबाद (उत्तर प्रदेश)

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