अन्नदाता की भूख - कविता - फरहाना सय्यद

तेरा ग़ुरूर कृषक को मजबूर पुकारे,
पर उस पुकार को साँसें सदा नकारे।
उसके सपनों में तेरा लक्ष्य निहारे,
तेरे मंसूबों में अटकी हलधर की साँसें।।

परिवार की ज़िम्मेदारी तुझ पर है,
भूखे की ज़िम्मेदारी तो किसान पर है।
लोगों की भूख मिटाने वह अवतरित है,
पर उसकी रोटी छीनना कैसी फ़ितरत है।।

धूप में पसीना बहाया उसका कर्म है,
पसीना सूखने से पहले फल भी धर्म है।
अधर्मी के माफ़िक रखता है उसका फल,
कीड़े पड़े फल में क्यों चिल्लाता है कल?

माना ज़िन्दगी साँसों से चलती हैं पर,
साँसें तो हलधर के लिबासों से चलती है।
वैद्य मर्ज़ को दूर कर बन जाता भगवान है,
भूख को दूर कर किसान हो जाता परेशान है।।

निःस्वार्थ भावना से पिरोया हर किसान है,
उसकी पीड़ा न देखने वाला फिर कैसा इंसान है।
झोपड़ी और इमारत का भेद अजीबो-ग़रीब,
क्योंकि अनाज को नही दिखता है अमीर ग़रीब।।

आसमान में उड़ना तेरी फ़ितरत माना,
पर एक दिन ज़रूर तुझे ज़मीन पर आना।
भूख की दवा है उगती मिट्टी में जहाँ,
घमण्ड से बादलों में अनाज उगती ही कहाँ?

फरहाना सय्यद - सोलापुर (महाराष्ट्र)

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