ज़हरीला नाग है यह नशा - कविता - रमाकांत सोनी

अँधेरी दुनिया को तज कर,
ज़िंदगी रोशनी से चमकाओ।
नशा अवगुण की है खान,
गर्त में प्यारे मत जाओ।

युवा खैनी का रसपान,
रगड़ कर गुटखा खाते हैं।
सड़क पर इतर कर बीड़ा,
ज़र्दे का पान चबाते हैं।

चंगे को मरियल कर देता,
मन की सद्बुद्धि हर लेता।
चढ़ता है जब सर पर नशा,
विनाश ख़ुद का कर लेता।

ज़हरीला नाग ये नशा,
आग़ोश में युवा पीढ़ी है।
कारण टीबी कैंसर का, 
रोगों की पहली सीढ़ी है।

बर्बाद जाने कितने रिश्ते,
कितने घर फूँक डाले हैं।
छीने अबोध बच्चों के,
दूध मुख के निवाले है।

नचाया जाने कितनों को,
नशे में नाचती बोतल ने।
छीनकर सुख-चैन सारा,
दामन भरा मुश्किलों से।

ऐसे ज़हरीले प्राणी से,
झट से रिश्ता लेना तोड़।
हाथ जोड़कर विनती करूँ,
बंधुवर नशा करना दो छोड़।

रमाकांत सोनी - झुंझुनू (राजस्थान)

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