तुम्हारे संतान सदैव सुखी रहें - कविता - गोलेन्द्र पटेल

सभ्यता और संस्कृति के समन्वित सड़क पर
निकल पड़ा हूँ शोध के लिए।
झाड़ियों से छिल गई है देह,
थक गए हैं पाँव कुछ पहाड़ों को पार कर,
सफ़र में ठहरी है आत्मा
बोध के लिए;

बरगद के नीचे बैठा कोई बूढ़ा पूछता है
अजनबी, कौन हो?
जी, मैं एक शोधार्थी हूँ,
मुझे प्यास लगी है।

जहाँ प्रोफेसर और शोधार्थी
पुरातात्विक पत्थर पर पढ़ रहे हैं,
उम्मीदों के उजाले से उत्पन्न उल्लास
उत्खनन की प्रक्रिया में
खोज रही है
प्रथम प्रेमियों के ऐतिहासिक साक्ष्य
मैं वहीं जा रहा हूँ;

बेटा उस तरफ़ देखो
वहाँ छोटी सी झील है,
जिसमें यहाँ के जंगली जानवर पीते हैं पानी
यदि तुम कुशल पथिक हो
तो जा कर पी लो
नहीं तो एक कोस दूर एक क़बीला है,
जहाँ से तुम्हारी मंज़िल
डेढ़ कोस दूर नदी के पास;
फ़िलहाल दो घूँट मेरे लोटे में है
पी लो बेटा।

धन्यवाद दादा जी!

उत्खनन स्थल पर पहुँचते ही पुरातत्वज्ञ ने
लिख डाली डायरी के प्रथम पन्ने पर मिट्टी के पात्रों का इतिहास,
लोटा देख कर आश्चर्य है
यह बिल्कुल वैसा ही है
जैसा उक्त बूढ़े का था;
वही नक्काशी, वही आकार...
क़लम स्तब्ध है
स्वप्न-सागर में डूबता हुआ
मन
सोच के आकाश में
देख रहा है
अस्थियों के औज़ार
पत्थरों के बने हुए औज़ारों से मज़बूत हैं!

देखो
टूरिस्ट आ गए हैं,
पुरातात्विक पत्थरों के ज़्यादा पास न पहुँचें सब
नहीं तो लिख डालेंगे
इतिहास पढ़ने से पहले ही प्रेम की ताज़ी पंक्ति;

किसी ने आवाज़ दी
सो गए हो क्या ?
शोधकर्ता सोते नहीं हैं शोध के समय
सॉरी सर!
कल की थकावट की वजह से
आँखें लग गईं
अब दोबारा ऐसा नहीं होगा।

ठीक है
जाओ! देखो! उन टूरिस्टों को
कहीं कुछ लिख न दें
तहरीर लिखी है-
प्रिय पर्यटकगण! आप लोगों से अतिविनम्र निवेदन है कि किसी भी पुरातात्विक पत्थरों पर कुछ भी न लिखें।

श्रीमान! आप मूर्तियों के पास क्या कर रहे हैं?
कुछ नहीं सर!
बस छू कर देख रहा हूँ
कितनी प्राचीन हैं,
महोदय! किसी मूर्ति की प्राचीनता पढ़ने पर पता चलती है
छूने पर नहीं;
जो लिखा है मूर्तियों पर उसे पढ़ें
और क्रमशः आप लोग आगे बढ़ें।

सामने एक पत्थर पर लिखा है
जंगल के विकास में
इतिहास हँस रहा है,
पेड़-पौधे कट रहे हैं,
पहाड़-पठार टूट रहे हैं,
नदी-झीलें सूख रही हैं,
कुछ वाक्य स्पष्ट नहीं हैं
अंत में लिखा है
जैसे-जैसे बिमारी बढ़ रही है
दीवारों पर थूकने की
और मूतने की;
वैसे-वैसे चढ़ रही है
संस्कार के ऊपर जेसीबी
और मर रही हैं संवेदना।

आगे एक क्षेत्र विशेष में
अधिकतम मानव अस्थियाँ प्राप्त हुई हैं,
जिससे सम्भावना व्यक्त किया जा सकता है
कि यहाँ प्रकृति के प्रकोप का प्रभाव रहा हो
जिसने समय से पहले ही
पूरी बस्ती को श्मशान बना दी;
 
संदिग्ध इतिहास छोड़िए
मौर्य-गुप्त-मुगलों के इतिहास में भी नहीं रुकना है,
सीधे वर्तमान में आइए
जनतंत्र से जनजाति की ओर चलते हैं।

आज़ादी के बाद शहर में आदिवासियों के आगमन पर
हम ख़ुश हुए
कि कम-से-कम हम रोज़ हँसेंगे
उनकी भाषा और भोजन पर
वस्त्र और वक़्त पर
व्यवसाय और व्यवहार पर;

बस कवि को छोड़ कर
शेष सभी पर्यटक जा चुके हैं।
जो जानना चाहता है
प्राचीन प्रेम का वह साक्ष्य
जिस पर सर्वप्रथम उत्कीर्ण हुआ है,
वही दो अक्षर
"जिसे 'प्रेम' कहते हैं/दो प्रेमियों के बीच/संबंधों का सत्य/सृष्टि की शक्ति/जीवन का सार"

पास की क़बीली दो कन्याएँ
पुरातत्व के शोधार्थी से प्रेम करती हैं;
प्रेम की पटरी पर रेलगाड़ी दौड़ने से पहले ही
शोधार्थी लौट आता है शहर
शहर में भी किसी सुशील सुंदर कन्या को हो जाती है
उससे सच्ची मुहब्बत!

दिन में रोज़-मर्रा की राजनीति
रात में मुहब्बते-मजाज़ी की बातें
गंभीर होती हैं,

प्रिये!
जब तुम मेरी बाहों में सोती हो
गहरी नींद
निश्चिंत
तब तुम्हारे शरीर की सुगंध
स्वप्न-सागर से आती
सरसराहटीय स्वर में सौंदर्य की संगीत सुनाती है;
भीतर
जगती है वासना
तुम होती हो
शिकार
समय के सेज पर।

संरक्षकीय शब्द सफ़र में
थक कर
करता है विश्राम
चीख़ चलती है हवा में अविराम,

साँसों की रफ़्तार
दिल की धड़कन से कई गुना बढ़ जाती है;
होंठों पर होंठ सटते हैं
कपोलों पर नृत्य करती हैं
सारी रतिक्रियाएँ
एक कर सहलाता है केश
तो दूसरा स्तन को
एक दूसरे की नाक टकराती हैं
नशा चढ़ता है
ऊपर
नाक के ऊपर
आग सोखती हैं आँखें आँखों में देख कर
स्पर्श का आनंद।

तभी अचानक
बाहर से कोई देता है आवाज़
यह तो स्वप्नोदय की सनसनाहट है;
देखो वीर अपना बल
अपना वीर्य
अपनी ऊर्जा।

प्रियतम!
क्यों हाँफ रहे हो?
क्यों काँप रहे हो?
मैं सोई थी
निश्चिंत फोह मारकर गहरी नींद में,
मुझे बताओ
क्या हुआ?
तुम्हें क्या हुआ है?
तुम्हारे चेहरे पर
यह चिह्न कैसा है?
यौन कह रहा है
मौन रहने दो
प्रिये!

ठीक है,
जैसा तुम चाहो

अल्हड़ नदी
मुरझाई कली के पास है;
साँझ शृंगार करने आ रही है
तट पर
हँसी ठिठोली बैठ गई
नाव में।

लहरें उठ रही हैं
अलसाई ओसें गिर रही हैं,
दूबों की देह पर
इस चाँदनी में देखने दो
प्रेम का प्रतिबिम्ब
आईना है;
नेह का नीर
नाराज़गी खे रही है पतवार
दलील दे रही है
देदीप्यमान द्वीप पर रुकने का संकेत।

कितनी रम्य है रात
कितने अद्भुत हैं,
ये पेड़-पौधे, नदी-झील, पशु-पक्षी, जंगल-पहाड़,
यहाँ के फलों का स्वाद,
प्रिये! यही धरती का जन्नत है।
हाँ,
मुझे भी यही लगता है;

उधर देखो
हड्डियाँ बिखरी हैं,
यह तो मनुष्य की खोपड़ी है
अरे! यह तो पुरुष है
इधर देखो
स्त्री का कंकाल है।

ये कौन हैं?
जाति से बहिष्कृत धर्म से तिरस्कृत
पहली आज़ाद औरत का पहला प्यार
या दाम्पत्य जीवन के सूत्र
या आदिवासियों के वे पुत्र
जिन्हें वनाधिकारियों के हवस-कुंड में होना पड़ा है,
हविष्य के रूप में स्वाहा
हमें हमारा भविष्य दिख रहा है
अँधेरे में;

प्रियतम पीड़ा हो रही है
पेट में
प्रिये!
तुम भूखी हो
कुछ खा लो
नहीं, भूख नहीं है
तब क्या है?

तुम्हारा तीन महीने का श्रम
ढो रही हूँ,
निरंतर
इस निर्जनी उबड़-खाबड़ जंगली पथ पर,
अब और चला नहीं जाता
रुको...रु...को
ठहरो...ठ...ह...रो
सुस्ताने दो।

प्रिये!
मुझे माफ़ करो
मैं वासना के बस में था,
उस दिन
आओ मेरी गोद में
तुम्हें कुछ दूर और ले चलूँ
उस पहाड़ के नीचे
जहाँ एक बस्ती है;
पुरातात्विक साक्ष्य के संबंध में गया था
वहाँ कभी
तो दो लड़कियों ने कर लिया था
मुझसे प्रेम
जिनकी भाषा नहीं जानता मैं
वे वहीं हैं
हम दोनों
उनके घर विश्राम करेंगे
निर्भय।

गोदी में ही पूछती है
प्रियतमे!
तुम मुझे
कब तक ढोओगे?
प्रिये!
जन ज़मीन जंगल की क़सम
जीवन के अंत तक
ढोऊँगा
तुम्हें
अविचलाविराम;

मेरे जीने की उम्मीद
तुम्हारे गर्भ में पल रही है
तुम मेरी प्राण हो
तुम्हारा प्रेम मेरी प्रेरणा
देखो सामने झोपड़ी है
जो, उसी का है
वह रहा उसका घर।

आश्चर्य है प्रियतम!
यह तो पेड़ पर बना है
केवल बाँस से
हाँ,
ये लोग खुँखार जानवरों से
बचने के लिए ही ऐसा घर बनाते हैं
बस अंतर इतना है कि हम शहरी हैं
ये वनजाति
हम देखने में देवता हैं
ये राक्षस
ख़ैर ये सच्चे इंसान हैं।

क़बीलों वालों
मालिक आ रहे हैं,
स्वागत करो
मालिक...मा...लि...क
यह लीजिए एक घार केला,
यह लीजिए कटहल,
यह लीजिए बेर,
यह कंदमूल फल फूल स्वीकार करें,
मालिक!
हम क़बीले की राजकुमारी हैं;
सरदार कहता है
मालिक ये दोनों मेरी पुत्री
आपकी राह देख रही थीं
आपके आने से
कबीलीयाई धरती धन्य हुई
अब आप इन्हें वरण करें।

आपको अपना परिचय
उस बार हम दोनों बहनें नहीं दे सकी
इसके लिए हमें क्षमा करना
ये कौन हैं?
मेरी पत्नी,
जो आपकी भाषाओं से एक-दम अपरचित है;
ये पेट से तीन महीने की है
थक गई हैं
सफ़र में चलते चलते।

हम दोनों आपके उपकारों का सदैव ऋणी रहेंगे,
यह मेरा सौभाग्य है
कि मैं आप लोगों से पुनः मिल पा रहा हूँ।

कुछ दिन बाद
दोनों शहर आ जाते हैं
जहाँ सभ्य समाज के शिक्षित लोग रहते हैं,

क्या धर्म के पण्डित?
इस कुँवारी कन्या की भारी पैर पर व्यंग्य के पत्थर मारेंगे
या फिर इन्हें संसद के बीच चौराहे पर
जाति के संरक्षक-सिपाही बहिष्कृत-तिरस्कृत का तीर मारेंगे;

कुछ भी हो
कंदमूल की तरह
दोनों ने दुनिया का सारा दुःख एक साथ स्वीकार कर लिया,
तुम्हारे हिस्से का अँधेरा भी क़ैद कर लिए
अपने दोनों मुट्ठियों में
ताकि
तुम्हें दिखाई देता रहे प्रकाशमान प्रेम
और तुम्हारे संतान सदैव सुखी रहें!

प्रियतम !
पीड़ा...पेट में पीड़ा...पी...ड़ा
आह रे माई! माई रे!

गर्भावस्था के अंतिम स्थिति में
अक्सर अंकुरित होती है आँच,
अलवाँती की आँत से आती है आवाज़
प्रसूता की पीड़ा प्रसूता ही जाने।

औरत की अव्यक्त व्यथा-कथा कैसे कहूँ?
मैं पुरुष हूँ!

नौ मास में उदीप्त हुई
नई किरण,
किलकारियों के क्यारी में
रात के विरुद्ध
रोपती है
रोशनी का बीज
जिसे माँ छाती से सींचती है
नदी की तरह निःस्वार्थ।

अवनि आह्लादित है
आसमान की नीलिमा में झूम रहे हैं तारे,
चाँद उतर आया है
हरी भरी वात्सल्यमयी खेत में
चरने के लिए
फ़सल;

प्रेम का पइना पकड़े
खड़े हैं
पहरे पर पिता,
उम्र बढ़ रही है
ऊख की तरह
मिट्टी से मिठास सोखते हुए
मौसम मुस्कुराया है
बहुत दिन बाद बेटी के मुस्कुराने पर।
 
सयान सुता पूछती है
माँ से
क्या आप मुझे जीने देंगी?
अपनी तरह
क्या मैं स्वतंत्र हूँ?
अपना जीवनसाथी चुनने के लिए  
आपकी तरह
आप चुप क्यों हो?

बापू आप बाताइए
जिस तरह माँ ने किया है
आपसे प्रेम-विवाह
क्या मैं कर सकती हूँ?
धैर्य से उठाकर
पिता ने दे दी
धीमी स्वर में उत्तर;
मेरी बच्ची तुम स्वतंत्र हो
शिक्षित हो
जैसा उचित समझो
करो...!

गोलेन्द्र पटेल - चंदौली (उत्तर प्रदेश)

Instagram पर जुड़ें



साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिए साहित्य से जुड़ी Videos