हाँ ज़िंदगी रो रही - कविता - माहिरा गौहर

वक़्त की मार है
ग़मों का भरमार है,
जलती लाशों की तपिश देख 
सूरज भी इस दौर का कम हैसियत-दार है।
क़ब्र खंद, कफ़न बेच चलते हैं जिनके घर,
उन्हें भी रोटी के निवाले से इनकार है।
हर तरफ़ बस रही मौत,
हाँ ज़िंदगी रो रही ज़ार-ओ-क़तार हैं।
टूटते सितारों में लोग ढूँढ रहे हैं अपनों को,
ज़मीनी हक़ीक़त तो बस लाश की भरमार है।
ज़िंदगी तो साँसों की तलब-गार है,
फिर भी हो रहा साँसों का व्यापार है
थम पड़े चक्के ज़िंदगियों के,
कोई तरसा अंतिम संस्कार के लिए
कोई तड़पा आख़िरी दीदार के लिए
कभी ना भरने वाली ज़ख़्म की मार है
हाँ ज़िंदगी रो रही ज़ार-ओ-क़तार हैं।

माहिरा गौहर - नवादा (बिहार)

Join Whatsapp Channel



साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिए साहित्य से जुड़ी Videos