तुम लड़की हो - कविता - ईशा शर्मा

तुम लड़की हो,
तुम क्यों बोलती हो?
तुम्हारा बोलना उन्हें पसंद नहीं,
तुम जो यूँ
नज़रें नीची करने की बजाय
लड़कों की आँखों में आँखें डाल कर
बातें करती हो,
ज़माने से नहीं डरती हो?

स्कूल हुआ, कॉलेज हुआ
अब पढाई का स्वाँग बस हुआ,
घर से बाहर
नौकरी करने की ज़िम्मेदारी
ख़ुद पर क्यों लेती हो,
तुम चुप क्यों नहीं रहती हो?

जब बंद कमरे में
काली रातों में
वो ख़ुद को तुम पर
थोपता है,
तो क्यों? मना क्यों कर बैठती हो?
पत्नी हो तो उसकी ख़ुशी
तुम्हारा ज़िम्मा नहीं?
क्यों तुम आज कल
उसके वर्चस्व को नकार देती हो,
उसे हराने की चाह में
तुम ख़ुद क्या पा लेती हो?

यहाँ कुछ तुम्हारा कभी नहीं था,
तुम हमेशा किसी की बेटी
या किसी की पत्नी थीं,
तुम्हारे अस्तित्व का हर एक अंश
किसी और के वजूद से जुड़ा है।
ये हमेशा ऐसा ही रहा है,
ये कभी नहीं बदला है।
पितृसत्ता की बुनियाद को
यूँ क्यों चुनौती देती हो,
तुम लड़की हो,
तुम चुप क्यों नहीं रहती हो?

तुम्हारी जगह घर के अंदर है
दुनिया के सामने नहीं,
बंद कमरों में है
खुले आँगन में नहीं।
लाज और मर्यादा तुम्हारे लिए है,
ज़बान और ख़्याल नहीं।
बेबसी और लाचारी है,
सम्मान और हक़दारी नहीं।

तुम लड़की हो, पराई हो,
उस घर की हो
जहाँ ब्याही हो,
तुम सब समझती हो ना?
फिर क्यों हर रोज़
किसी नई कोख से जन्म लेती हो।
तुम लड़की हो
शायद इसलिए सब सहती हो,
तुम लड़की हो
कभी कुछ नहीं कहती हो।।

ईशा शर्मा - गुड़गांव (हरियाणा)

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