सामूहिक रूप से गवाही - कविता - डॉ. कुमार विनोद

प्रकृति के शाश्वत क्रम में,
समुद्र में ज्वार-भाटे आते रहते हैं,
यह क्रम, जैसे ही व्यतिक्रम होता है,
प्रकृति के साथ होती है मनमानी।
निश्चित, तूफ़ान उठ खड़ा होता है,
लहरें हो जाती हैं सुनामी।
इसीलिए-
चाहे भूकंप हो या ज्वाला-मुखी,
प्रकृति के नियमों के विरुद्ध
जब भी कहीं, खोट होता है,
अतिरिक्त दबाव पड़ने से
निश्चित विस्फोट होता है।
जीवन का पथ भी शाश्वत हैं,
हारने से, थक जाने, धैर्य खोने से,
सूर्य का रथ नहीं रुक सकता।
मैं चाहता हूँ, सूर्य का रथ रुके नहीं
बल्कि नियमित चले,
क्योंकि- इस प्रकार चलने से
चिड़िया अपने घोंसले में,
किसान अपने घरों में,
जानवर अपने माँद में
सुरक्षित वापस लौट सकते हैं।
सब कुछ व्यवस्थित,
सब कुछ क्रमबद्ध...I
हम नहीं थोप सकते दूसरे पर अपनी इच्छा,
और प्रकृति भी कभी नहीं कर सकती किसी की प्रतिक्षा।
इस सत्य को उद्घाटित करने के लिए
इतना ही पर्याप्त है कि
सूर्य का रथ अस्ताचल में चले जाने के बाद भी
हम खोजते रहते हैं,
मोमबत्ती या दीपक लेकर 
रात भर वह प्रकाश।
और लाख चाहने पर भी नहीं
मिल पाता है वह नीला आकाश।
पुनः अपने समय पर ही होता है उजास।
जीवन का क्रम भी इसी के है आसपास,
मत हो हताश।
कर्म पथ पर आगे बढ़ते हुए
नियमों से आबद्ध हो जाओ।
क्यों करते हो प्रकृति का दोहन,
मत करो छेड़छाड़ 
और प्रदूषण की फार्मिंग।
ग्लेशियर पिघल रहे हैं,
हो रहा है ग्लोबल वार्मिंग।
मत काटो वृक्ष,
कचरे से क्यों करते हो मनमानी 
ओज़ोन परत में भी छिद्र हो रहे है।
मुझे आहट सुनाई देती है।
एक न एक दिन पानी के लिए भी
होगा हाहा-कारी, मारा-मारी।
अब और मत उकसाओ 
मत करो पृथ्वी के माहौल का
विनष्ट कर,
चाँद पर रहने की बात।
पूर्णत: प्रकृति के साथ हो जाओ।
सच कहता हूँ-
यदि ऐसा तुम कर सकोगे तो
ऑक्सीजन के अस्तित्व से संबंधित,
कोई ख़तरा नहीं होगा।
ना उठेंगे तूफ़ान।
न फूटेंगे ज्वाला-मुखी।
न ही ग्लेशियर पिघलेंगे।
न ही होगा सुनामी जैसी तबाही।
वरना! तुम्हें एक न एक दिन,
प्रदूषण के ख़िलाफ़- देनी ही होगी,
सामूहिक रूप से गवाही...।

डॉ. कुमार विनोद - बांसडीह, बलिया (उत्तर प्रदेश)

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