पर्यावरण - कविता - नीरज सिंह कर्दम

हरियाली का कभी होता था डेरा
जंगल और ख़ूब अँधेरा,
जानवरों की दहाड़, पक्षियों का डेरा,
आज वहाँ पर है फ़ैक्टरियों का बसेरा।

आसमाँ भी बिना पक्षियों के सूना लगता है,
उड़ते पक्षी अब गिर मर जाते हैं।
जब फ़ैक्टरियों से निकले प्रदुषित
धुआँ के संपर्क में आते हैं।

हो रही है नदियाँ भी अब प्रदुषित,
पी कर जानवर उस पानी को
दम तोड़ देते हैं नदियों के किनारे,
पीने योग्य नहीं रहा अब नदियों में पानी।

हरियाली अब ख़त्म हो रही है,
बड़ी बड़ी फ़ैक्टरियाँ जगह ले रही है।
हरे भरे जंगल की इंसान ने ले ली जान,
काट दिया सब जंगल, सूखा छोड़ा पेड़।

बहती थी जहाँ नदियाँ, आज वहाँ पर नाला है,
इंसान ने अपने स्वार्थ के लिए क्या कर डाला है।
सोना उगलती भूमी को बंजर बना डाला है,
नष्ट कर हरियाली को, व्यापार ख़ूब बढ़ाया है।

मत करो नष्ट अब पर्यावरण को
जीना मुश्किल हो जाएगा,
हरियाली पर मत करों अब प्रहार,
प्रकृति चीख़ चीख़ कर करें पुकार।

लगाओ वृक्ष अधिक, जीवन अपना बचाना है,
एक हरा भरा जंगल फिर से बनाना है।
मेघ बरसेंगे, पानी भी बचाना,
मत करो प्रहार हरियाली पर, जीवन अपना बचाना है।

नीरज सिंह कर्दम - असावर, बुलन्दशहर (उत्तर प्रदेश)

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