आओ इस धरा को हरित बनाएँ
एक एक पेड़ से कर शुरुआत,
आओ क़सम ये खाएँ,
यह सिलसिला बारंबार अपनाएँ,
आओ इस धरा को हरित बनाएँ।
कल जो काटे थे पेड़, कल को सुलभ बनाने को
आज भर दे कोख धरा की, फिर उसे उज्जवल बनाएँ,
आओ इस धरा को हरित बनाएँ।
उठता है धुआँ यह कल-कारख़ानों से,
धरती अंदर से जल रही, दिखती नहीं प्यास इसकी,
बारिश क्यों नहीं इससे अंदाज़ लगाएँ,
धरा के जीवन की इस निशानी को फिर से लौटाएँ,
आओ इस धरा को हरित बनाएँ।
हैं रुकी साँसें आज जो अपनी,
यह भी तो कहाँ मधुर श्वास में है,
तड़प उठी है इसकी भी प्यास जीवन की,
लड़खड़ाती है साँसें आज हमारी भी,
प्राणदायिनी ऑक्सीजन को फिर से संजोए,
आओ इस धरा को हरित बनाएँ।।
सन्तोष ताकर "खाखी" - जयपुर (राजस्थान)