इंसान की भूख - कविता - प्रद्युम्न अरोठिया

इंसान को इंसान की भूख ने मारा,
हड्डियों के ढाँचों का शहर कर डाला।
हर तरफ़ एक ही चीख़ निकलती है,
मौत ने नींद जो गहरी दे दी है।
कोई नहीं सुनता रुदन उसका
जो ज़िंदगी अपने वजूद के लिए क़ैदी है।
गिद्ध जैसे हड्डियों से मांस नोंचते हैं,
वैसे कुछ इंसान यहाँ इंसान को जानवर तौलते हैं।
काल की यह भयानक रात
हर किसी पर अमावस सी गुज़रती है,
छिपे हैं मासूम घरों की दीवारों में,
पर शैतानों के लिए अमावस ही फलती है।
दुकानें सजा कर जो खुले-आम बोली लगाते हैं
वही कल धर्मात्मा की पौशाक पहन इंसान को इंसान बनाते हैं।
यह मिटती नहीं यह भूख ही ऐसी है,
इंसान की फ़ितरत पैसों पर पलती है।
यह दौर सबको एक साथ मिलकर लड़ने का,
पर यह भूख ऐसे हालातों में और बढ़ती है।

प्रद्युम्न अरोठिया - अलीगढ़ (उत्तर प्रदेश)

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