क़लम - कविता - वर्षा अग्रवाल

ऐ क़लम तुमसे प्यार बहुत है,
कैसे कहु इक़रार बहुत है।
जब होती हू संग तुम्हारे,
सब कुछ भूल जाती हूँ,
काम काज घर परिवार छोड़
तुम संग खो जाती हूँ।
भूल जाती हूँ दुनिया को, जिनकी करीबी कहलाती हूँ,
अपनी बाते कर साँझा तुम संग सुकून नया पाती हूँ।
जब होती हू संग तुम्हारे वक़्त लगता है कम,
हर लेखक की हो माशुका प्रेमिका हो तुम।
ऐ क़लम तुमसे प्यार बहुत है,
कैसे कहूँ इक़रार बहुत है।
तुम्हारे ही दम पे इतराते दुनिया के शायर सारे,
कवि कवित्रियों का हो गर्व संगी साथी तुम।
तुमसे लिखे शब्दों से मिलती खुशी और ग़म,
जो तुम ना होती तो शायर शायरी किस तरह करते?
स्त्रियों की सुन्दरता की तुलना चाँद से कैसे करते?
तुम संग ही तो कवि मन की बाते करते,
बड़े बड़े नेताओं पर व्यंग अपने करते।
जो तुम ना होती तो काग़ज़ होता फीका,
निरस सा हो जाता लेखक कैसे होता पूरा?
विचार अपने दिल के प्रेमी किस तरह प्रस्तुत करवाता?
बिन कहे हाल-ए-दिल कैसे बतलाता?
बच्चों का भविष्य बनाती, लेखकों के मन को भाती।
कवि कवित्रियों की जान, शायरों की हो शान।
ऐ क़लम तुमसे प्यार बहुत है,
कैसे कहूँ इक़रार बहुत है।

वर्षा अग्रवाल - दार्जिलिंग (पश्चिम बंगाल)

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