मत जाओ बाज़ार - कविता - आशाराम मीणा

(चेतावनी अपने आप के लिए)
मौत की दहशत तुम्हारी राह देख रही है द्वार पर।
शोक संदेशे भरे पड़े हैं पढ़लो तुम अख़बार पर।
दाना पानी अच्छा खाओ व्यस्त रहो परिवार पर।
कुटी आँगन पड़े रहो मत बोझ बनो सरकार पर।
ज़िंदा लाशें तड़प रही है रोज़ाना अस्पताल पर।
ख़ुद रहम करो रे सज्जनों! मत जाओ बाज़ार पर।।

(मौका परस्त लोग जो इस समय भी मरीज़ों की दवा सामग्रियों की कालाबाज़ारी कर रहे हैं)
मानुष ने पैदाइश में दुराचारी कलंक लगा दिया।
दो गज के कफ़न को दुर्जनों ने धंधा बना लिया।
मुर्दघाट की काष्ठ से घर का चुल्हा जला दिया।
मरीज़ों की औषध से भ्रष्टता रिश्ता बना लिया।
मानवता की ममता की छवि लगा दी दाव पर।
ख़ुद रहम करो रे सज्जनों! मत जाओ बाज़ार पर।।

(सकारात्मक सोच के साथ कोरोना से लड़ने के लिए)
फिर से नया सवेरा होगा नवनूतन भोर आएगी।
नाचेंगे मोर पपीहा वन में कोयल नग़मा गाएगी।
सुनहरे बागों में कलियाँ कनक फूलों से सजेगी।
राधा मोहन की क्रीड़ाएँ हर गली मोहल्ले गूँजेगी।
सूरज की नई किरण पड़ेगी तिमिर के संताप पर।
ख़ुद रहम करो रे सज्जनों! मत जाओ बाज़ार पर।।

आशाराम मीणा - कोटा (राजस्थान)

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