काटते जंगल वे बनाते हैं
कंकरीटों के फिर महल।
उसी में रमते हैं खुशी से
जाता मन उसी में बहल।
दिलो दिमाग़ पर हावी है
धन दौलत की बस चाह।
दिखे नहीं इसके सिवा है
उनको कोई भी कब राह।
काटते जंगल वे बनाते हैं
कंकरीटों के फिर महल।
जब काम ही हो बेबुनियाद
कहलाना बौद्धिक है बेकार।
प्राणवायु दाता को काटकर
बम-बारूदों का है कारोबार।
इस कलुषित काम से अब
मन सबका है जाता दहल।
सबको पड़ी दिखावे की ही
उसमें ही तो गए सब भूल।
वही दिखावा देखो आकर
बना हुआ आज अब शूल।
तड़प रहे हैं प्राणवायु हित
भाता कहाँ अब रंग-महल।
डॉ. सरला सिंह "स्निग्धा" - दिल्ली