चक्रवात - कविता - विनय "विनम्र"

था व्योम घटामय तिमीर शांत,
बढ आया तम बादल आक्रांत।
निर्मोह सहित गर्जन अपार,
निर्ममता करता तार-तार।

मारुत का विप्लव बल अपार,
अस्त व्यस्त करता प्रहार।
वृक्षों के वक्षस्थल विशाल,
कर भेदन जैसे तृन असार।

भू के स्तर में कण अशेष,
उड़ चले चपल प्रस्तर विशेष।
अवनि निज धैर्य कहाँ बाँधे,
किस बल पर जीवन को साधे।

जीवन डगमग ऐसे डोले,
ज्यों काल प्रकट बम बम बोले।
द्यूति प्रलय अशांति को बल देती,
जो बचा धैर्य वो हर लेती।

विस्मय आतंकित जीव हुआ,
ज्यों प्रकट काल प्रत्यक्ष छुआ।
निर्भयता का जो ढोंग रचे,
कहते विस्मृत हो कौन बचे।

है अग्नि शिखा सा प्रबल वेग,
दामिनी दमके कर दे अचेत।
विह्वल व विकल पड़ा नर है,
नहीं अहं चेतना का बल है।

है मरुत वेग से मेघ छटा,
भीषण प्रलयंकर तिमीर हटा।
क्षितीज शांत अनिमेष पड़ी,
अब प्रबल नहीं है सुखद घड़ी।

पर पृष्ठभूमि में अस्त व्यस्त,
मानव जर्जर सा खड़ा अस्वस्थ।
अब भी अवचेतन में प्रलाप,
जो नष्ट हुआ उसका विलाप।

हैं सम्हल रहे बच्चे जन जन,
जो विकल रहे हो अब चेतन।
विप्लव का इतना भार पड़ा,
मुश्किल से कोई पेड़ खड़ा।

जब प्रकृति रौद्रमय हो जाती,
मय अहंकार सब खो जाता।
आपस में होता परम स्नेह,
सब मिलकर सुख का करे मेह।

जो तुफ़ानों में घिर जाता,
शीघ्र कहाँ वो सम्हल पाता।
प्रकृति करुण व कभी क्रूर,
मानव असहाय हाय मजबूर।।

विनय "विनम्र" - चन्दौली (उत्तर प्रदेश)

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