अंतरतम महका जाओ - कविता - दिनेश कुमार मिश्र "विकल"

सुमन सुगंध बन,
सद्गुण मकरंद बन,
जीवन-आनंद वन,
अंतरतम महका जाओ।

छाया सघन बन, 
श्रम सदन बन,
विधु बदन बन,
प्रेम-सुधा बरसा जाओ।
अंतरतम महका जाओ।।

मेघ-सा सजल बन,
शशि-सा शीतल बन,
ऋतुओं में बसंत बन,
स्फूर्ति लहका जाओ।
अंतरतम महका जाओ।‌।

भरपूर हो अन्न धन,
और कोई न हो कृश तन,
यदि हों 'विकल' जन,
जन-मन लहका जाओ।
अंतरतम महका जाओ।।

बेटी तू कालजयी बन,
ना अब छुईमुई बन,
प्रात: सवेरा चंपई बन,
जग कुटुंब चहका जाओ।
अंतरतम महका जाओ।।

दिनेश कुमार मिश्र "विकल" - अमृतपुर, एटा (उत्तर प्रदेश)

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