माँ - दोहा छंद - महेन्द्र सिंह राज

माता सम कोई नहीं, कर लो माँ को याद।  
बिन माँ के सुनता नहीं, कोई भी फ़रियाद।। 

माता रखती गर्भ में, बच्चों को नौ माह।
शिशू जनम में मातु के, मुख से निकले आह।। 

असह्य पीडा़ सह लिया, जनम दिया इक पूत। 
नहीं पता है मातु को, होगा पूत कपूत।।

पालन करती है सदा, जनकर ख़ुद का लाल। 
नहीं करो उस मातु के, ममता को तु हलाल।। 

माता होती भूमि सम, सहती सब का भार। 
उसके आँचल में भरा, सारा जग का प्यार।।

माता ममता मूर्ति है, समता की पहचान।
जिसकी माँ को कष्ट हो, बद है उसकी शान।।

माता ख़ुद ही पालती, अपने शिशु दो चार।
बुढ़ापे में वह बनती, निज बेटों पर भार।।

सुत के पालन को सदा, समझे जीवन सार।
मातु बुढ़ापे में बने, निज बहुओं पर भार।।

बेटे भी सुनते नहीं, माता की आवाज़।
बीवी की करुणा सदा, लगे वेणु का साज।।

सुत-बहु जीवन में कभी, करे न हस्त आक्षेप।
निज बहु का कहना सुने, हो वार पटाक्षेप।।

निज बहु को आज्ञा दिया, लिया लडा़ई मोल।
सास बहू को चाहिए, बोलें बोली तोल।। 

सूत सुता होती सदा, माता हेतु समान।
सह पाती माता नहीं, दोनों का अपमान।।

बहु सुता में भेद रखे, माँ का नहीं स्वभाव।
जो माता ऐसी बने, मिलता गेह न ठाँव।।

पाल पोसकर बडा़ किया, प्रथम गुरु है मात। 
पठन का भी बोझ सहे, कृषित हो गई गात।।

मातु सदा सेवा करो, मिलता आशीर्वाद। 
जिनकी ममता स्नेह में, पले पूर परिवार।। 

महेन्द्र सिंह राज - चन्दौली (उत्तर प्रदेश)

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