मनुष्यता के मानक - गीत - मोहित बाजपेयी

बहुत सी अमृत ऋचाएँ,
लिखी है धरती गगन पर।
जगत का हर कण सिखाता,
बहुत कुछ इंसान को।।

तेल के स्नेह में बाती जली खो कर स्वयं को।
तब जला दीपक निशा में सोख अँधेरे अहम को।।
अपनी सीमा और मर्यादा स्वयं वह जानता है।
ज्योति है एकाग्र स्थिर तत्व को पहचानता है।।
जब बुझा दीपक कहा सबने सहज हो एक स्वर में...
चाहिए दीपक सा जलना हर घड़ी इंसान को।।

बहुत सी अमृत ऋचाएँ...

जब खिली उषा की लाली खो निशाओं का नशा।
खिल उठे संग फूल भी उमड़ी महक और जग हँसा।।
दहकते शोलों में भी अपनी जगह पहचानते हैं।
टूट कर ख़ुद, दूसरों को जोड़ना ये जानते है।।
देख डाली पर खिले पुष्पों को कहते एक स्वर में...
चाहिए फूलों के जैसा महकना इंसान को।।

बहुत सी अमृत ऋचाएँ...

तृप्ति से वंचित धरा है देखती जब-जब गगन को।
और सूखे कंठ से गए पपीहा मन मगन हो।।
सीप और कदली कुसुम ख़ुद को अकेली मानती जब।
घर की गौरइया मनोहर रज कणों को छानती जब।।
तब बरसते बादलों को देख कहते एक स्वर में...
चाहिए मेघो के जैसे बरसना इंसान को।।

बहुत सी अमृत ऋचाएँ...

मोहित बाजपेयी - सीतापुर (उत्तर प्रदेश)

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