मुझे फ़ख़्र है - कविता - राम प्रसाद आर्य "रमेश"

कभी बीज था जो किसी वृक्ष का, 
कभी पादप, औ अब वो बृक्ष बन गया।
जीता था कभी जो स्वयं के लिए,
जीना जनहित अब बस लक्ष बन गया।। 

वो अठखेलियाँ, भोलापन, चुलबुलापन,
वो हँसी, छेड़खानी, जाने कब छन गया। 
दिल-दिमाँ में दबे ग़म, अरमाँ, सपने उमंगते, 
रिश गए सब भाव-नव, चिंतन कक्ष बन गया।। 

ये मासूम, ज्यों-ज्यों वृक्ष बनता गया, 
भाव नव उन्नयन नित्य जनता गया। 
कब लड़कपन गया, कब बीती जवानी,
कर्म, धर्म, शर्म, परिपूर्ण वक्ष बन गया।। 

पुष्प खिलते कभी कलियाँ मुस्कुराती, 
दिल-दरख़्त में दबी ज़ुबाँ तक आ न पाती। 
वायु की झोंक तगडी़, जल तरंग तीव्र से, 
उलझने, चोट खाने में दक्ष हो गया।। 

वृक्ष बढता गया, जीवन से लड़ता गया, 
हरापन हटता गया, पीत पड़ता गया। 
पात पुराना शनैः-शनैः झड़ता गया, 
शनैः-शनैः तेज तन घट, कृष्णपक्ष्र बन गया।। 

अब कोई बाढ़ आए, तूफ़ाँ सताए, 
या कोई जिस्म पर आके आरा चलाए। 
वो मजबूर, मन ही मन आँसू बहाए, 
ख़ुद का जीवन ख़ुद ही का विपक्ष बन गया।। 

वृक्ष है वो, भले उसका कटना तो तय है, 
काम आए किसी के, यों सड़े ना ये भय है।। 
फूल, फल, शाखा, पत्ते, काम आए सभी, 
लोकसेवक, प्रेलणाश्रोत प्रत्यक्ष बन गया।। 

जन्म-मृत्यु बीच का एक जीवन चक्र है ये, 
मर के भी काम आया मैं, मुझे फ़ख़्र है ये। 
वरना राहें कँटीली, बड़ी बक्र हैं ये,
पार करना कठिन ये प्रश्न यक्ष बन गया।।

राम प्रसाद आर्य "रमेश" - जनपद, चम्पावत (उत्तराखण्ड)

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